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________________ १६२ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन लेकर ब्रेडले, ग्रीन, अरबन आदि अनेक समकालीन विचारकों ने भी मानव जीवन के विभिन्न पक्षों को उभारते हुए सामान्य शुभ ( कामन गुड ) की अवधारणा के द्वारा स्वार्थवाद और परार्थवाद के बीच समन्वय साधने का प्रयास किया है । मानव प्रकृति में विविधताएँ हैं, उसमें स्वार्थ और परार्थ के तत्त्व आवश्यक रूप से उपस्थित हैं । आचारदर्शन का कार्य यह नहीं है कि वह स्वार्थवाद या परार्थवाद में से किसी एक सिद्धान्त का समर्थन या विरोध करे । उसका कार्य तो यह है कि 'अपने' और 'पराये' के मध्य सन्तुलन बैठाने का प्रयास करे अथवा आचार के लक्ष्य को इस रूप में प्रस्तुत करे कि जिसमें 'स्व' ओर 'पर' के बीच संघर्षों की सम्भावना का निराकरण किया जा सके । भारतीय आचार-दर्शन कहाँ तक और किस रूप में स्व और पर के संघर्ष की सम्भावना को समाप्त करते हैं अथवा स्व और पर के मध्य आदर्श सन्तुलन की संस्थापना करने में सफल होते हैं, इस बात की विवेचना के पूर्व हमें स्वार्थवाद और परार्थवाद की परिभाषा पर भी विचार कर लेना होगा । संक्षेप में स्वार्थवाद आत्मरक्षण है और परार्थवाद आत्मत्याग है । मैकेन्जी लिखते हैं कि जब हम केवल अपने व्यक्तिगत साध्य की सिद्धि चाहते हैं तब इसे स्वार्थवाद कहा जाता है, परार्थवाद है दूसरे के साध्य की सिद्धि का प्रयास करना । जैनाचार-दर्शन में स्वार्थ और परार्थ - यदि स्वार्थ और परार्थ की उपर्युक्त परिभाषा स्वीकार की जाये तो जैन, बौद्ध एवं गीता के आचार- दर्शनों में किसीको पूर्णतया न स्वार्थवादी कहा जा सकता है और न परार्थवादी । जैन आचार-दर्शन आत्मा के स्वगुणों के रक्षण की बात कहता है । इस अर्थ में वह स्वार्थवादी है । वह सदैव ही आत्म-रक्षण या स्व- दया का समर्थन करता है, लेकिन साथ ही वह कषायात्मा या वासनात्मक आत्मा के विसर्जन, बलिदान या त्याग को भी आवश्यक मानता है और इस अर्थ में वह परार्थवादी भी है । यदि हम मैकेन्जी की परिभाषा को स्वीकार करें और यह मानें कि व्यक्तिगत साध्य की सिद्धि स्वार्थवाद और दूसरे के साध्य की सिद्धि का प्रयास परार्थवाद है तो भी जैन दर्शन स्वार्थवादी और परार्थवादी दोनों ही सिद्ध होता है । वह व्यक्तिगत आत्मा के मोक्ष या सिद्धि का समर्थन करने के कारण स्वार्थवादी तो होगा ही, लेकिन दूसरे को मुक्ति के हेतु प्रयासशील होने के कारण परार्थवादी भी कहा जायेगा । आत्म-कल्याण, वैयक्तिक बन्धन एवं दुःख से निवृत्ति की दृष्टि से तो जैन-साधना का प्राण आत्महित ही है, लेकिन लोक - करुणा एवं लोकहित की जिस उच्च भावना से अर्हत्-प्रवचन प्रस्फुटित होता है उसे भी नहीं भुलाया जा सकता । जैन-साधना में लोक-हित - जैनाचार्य समन्तभद्र वीर - जिन-स्तुति में कहते हैं, 'हे भगवन्, आपकी यह संघ (समाज) - व्यवस्था सभी प्राणियों के दुःखों का अन्त करने १. नीति - प्रवेशिका, मैकेन्जी ( हिन्दी अनुवाद), पृ० २३४ २. आचारांग १।४।१।१२७- १२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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