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________________ १६५ स्वहित बनाम लोकहित वैयक्तिक नैतिकता को लोकहित के नाम पर कुंठित किया जाना उसे स्वीकार नहीं । ऐसा लोकहित जो व्यक्ति के चरित्र-पतन अथवा आध्यात्मिक कुण्ठन से फलित होता हो, उसे स्वीकार नहीं है लोकहित और आत्महित के सन्दर्भ में उसका स्वर्णिमसूत्र हैआत्महित करो और यथाशक्य लोकहित भी करो, लेकिन जहाँ आत्महित और लोकहित में द्वन्द्व हो और आत्महित के कुण्ठन पर ही लोकहित फलित होता हो, वहाँ आत्मकल्याण ही श्रेष्ठ है।' आत्महित स्वार्थ नहीं है-आत्महित स्वार्थवाद नहीं है। आत्मकाम वस्तुतः निष्काम होता है, क्योंकि उसकी कोई कामना नही होती। इसलिए उसका कोई स्वार्थ भी नहीं होता । स्वार्थी तो वह होता है जो यह चाहता है कि सभी लोग उसके हित के लिए कार्य करें। आत्मार्थी स्वार्थी नहीं है उसकी दृष्टि तो यह होती है कि सभी अपने हित के लिए कार्य करें । स्वार्थ और आत्मकल्याण में मौलिक अन्तर यह है कि स्वार्थ की साधना में राग और द्वेष की वृत्तियाँ काम करती हैं जबकि आत्महित या आत्मकल्याण का प्रारम्भ ही राग-द्वेष की वृत्तियों को क्षीणता से होता है। स्वार्थ और परार्थ में संघर्ष की सम्भावना भी तभी है, जब उनमें राग-द्वेष की वृत्ति निहित हो । राग-भाव या स्वहित की वृत्ति से किया जाने वाला परार्थ भी सच्चा लोकहित नहीं है, वह तो स्वार्थ ही है । शासन द्वारा नियुक्त एवं प्रेरित समाजकल्याण अधिकारी वस्तुतः लोकहित का कर्ता नहीं है, वह तो वेतन के लिए काम करता है। इसी तरह राग से प्रेरित होकर लोकहित करने वाला भी सच्चे अर्थों में लोकहित का कर्ता नहीं है । उसके लोकहित के प्रयत्न राग की अभिव्यक्ति, प्रतिष्ठा की रक्षा, यश-अर्जन की भावना या भावीलाभ को प्राप्ति के हेतु ही होते हैं। ऐसा परार्थ स्वार्थ ही होता है । सच्चा आत्महित और सच्चा लोकहित, राग-द्वेष से रहित अनासक्ति की भूमि पर प्रस्फुटित होता है । लेकिन उस अवस्था में न तो 'स्व' रहता है न 'पर'; क्योंकि जहाँ राग है वहीं 'स्व' है और जहाँ 'स्व' है वहीं 'पर' है । राग के अभाव में स्व और पर का विभेद ही समाप्त हो जाता है । ऐसी राग विहीन भूमिका से किया जानेवाला आत्महित भी लोकहित होता है, और लोकहित आत्महित होता है । दोनों में कोई संघर्ष नहीं, कोई द्वैत नहीं है । उस दशा में तो सर्वत्र आत्मदृष्टि होती है, जिसमें न कोई अपना, न कोई पराया । स्वार्थ-परार्थ की समस्या यहाँ रहती ही नहीं। जैन विचारणा के अनुसार स्वार्थ और परार्थ के मध्य सभी अवस्थाओं में संघर्ष रहे, यह आवश्यक नहीं । व्यक्ति जैसे-जैसे भौतिक जीवन से आध्यात्मिक जीवन की ओर ऊपर उठता जाता है, वैसे-वैसे स्वार्थ परार्थ का संघर्ष भी समाप्त होता जाता है । जैन विचारकों ने परार्थ या लोकहित के तीन स्तर माने हैं : १. उद्धृत आत्मसाधना-संग्रह, पृ० ४४१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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