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________________ १५२ जैन, बौद्ध तथा गीत के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में हमारे पारस्परिक सम्बन्धों को सुमधुर एवं समायोजनपूर्ण बनाने तथा सामाजिक टकराव के कारणों का विश्लेषण कर उन्हें दूर करने के लिए इन दर्शनों का महत्वपूर्ण योगदान है। वस्तुतः इन दर्शनों में आचार शुद्धि पर बल देकर व्यक्ति सुधार के माध्यम से समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। इन्होंने व्यक्ति को समाज का केन्द्र माना और इसलिए उसके चरित्र के निर्माण पर बल दिया । वस्तुतः इन दर्शनों के युग तक समाजरचना का कार्य पूरा हो चुका था अतः इन्होंने मुख्य रूप से सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने का प्रयास किया और सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि पर बल दिया । रागात्मकता और समाज सम्भवतः इन दर्शनों को जिन आधारों पर सामाजिक जीवन से कटा हुआ माना जाता है उनमें प्रमुख हैं-राग या आसक्ति का प्रहाण, संन्यास या निवृत्तिमार्ग की प्रधानता तथा मोक्ष का प्रत्यय । ये ही ऐसे तत्त्व हैं जो व्यक्ति को सामाजिक जीवन से अलग करते हैं । अतः भारतीय संदर्भ में इन प्रत्ययों को सामाजिक दृष्टि से समीक्षा आवश्यक है। सर्वप्रथम भारतीय दर्शन आसक्ति, राग या तृष्णा की समाप्ति पर बल देता है, किन्तु प्रश्न यह है कि क्या आसक्ति या राग से ऊपर उठने की बात सामाजिक जोवन से अलग करती है । सामाजिक जीवन का आधार पारस्परिक सम्बन्ध है और सामान्यतया यह माना जाता है कि राग से मुक्ति या आसक्ति की समाप्ति तभी सम्भव है जबकि व्यक्ति अपने को सामाजिक जीवन से या पारिवारिक जीवन से अलग कर ले। किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा ही है। न तो सम्बन्ध तोड़ देने मात्र से राग समाप्त हो जाता है, न राग के अभाव मात्र से संबंध टूट जाते हैं, वास्तविकता तो यह है, कि राग या आसक्ति की उपस्थिति में हमारे यथार्थ सामाजिक संबंध ही नहीं बन पाते। सामाजिक जीवन और सामाजिक संबंधों की विषमता के मूल में व्यक्ति की राग-भावना ही काम करती है । सामान्यतया राग द्वेष का सहगामी होता है और जब सम्बन्ध राग-द्वेष के आधार पर खड़े होते हैं तो इन संबंधों से टकराहट एवं विषमता स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है । बोधिचर्यावतार में आचार्य शान्तिदेव लिखते हैं: उपद्रवा ये च भवन्ति लोके यावन्ति दुःखानि भयानि चैव । सर्वाणि तान्यात्मपरिग्रहेण तत् किं ममानेन परिग्रहेण ॥ आत्मानमपरित्यज्य दुःखं त्यक्तुं न शक्यते । यथाग्निमपरित्यज्य दाहं त्यक्तुं न शक्यते ।। संसार के सभी दुःख और भय एवं तज्जन्य उपद्रव ममत्व के कारण होते हैं । जब ममत्व बुद्धि का परित्याग नहीं किया जाता तब तक इन दुःखों की समाप्ति सम्भव नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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