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________________ भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना १५३ है । जैसे अग्नि का परित्याग किये बिना तज्जन्य दाह से बचना असम्भव है राग हमें सामाजिक जीवन से जोड़ता नहीं है, अपितु तोड़ता ही है । राग के कारण मेरा या ममत्व भाव उत्पन्न होता है । मेरे संबंधी, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा राष्ट्र ये विचार विकसित होते हैं और उसके परिणामस्वरूप भाई-भतीजावाद, जातिवाद साम्प्रदायिकता और संकुचित राष्ट्रवाद का जन्म होता है । आज मानव जाति के सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों में ये ही सबसे अधिक बाधक तत्त्व हैं । ये मनुष्य को पारिवारिक, जातीय, साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर नहीं उठने देते हैं । वे ही आज की विषमता के मूल कारण हैं । भारतीय दर्शन ने राग या आसक्ति के प्रहाण पर बल देकर सामाजिकता की एक यथार्थ दृष्टि ही प्रदान की है। प्रथम तो यह कि राग किसी पर होता है और जो किसी पर होता है वह सब पर नहीं हो सकता है । अतः राग से ऊपर उठे बिना या आसक्ति को छोड़े बिना सामाजिकता की सच्ची भूमिका प्राप्त नहीं की जा सकती । सामाजिक जीवन की विषमताओं का मूल 'स्व' की संकुचित सीमा ही है । व्यक्ति जिसे अपना मानता है उसके हित की कामना करता है और जिसे पराया मानता है उसके हित की उपेक्षा करता है । सामाजिक जीवन में शोषण, क्रूर व्यवहार, घृणा आदि सभी उन्हीं के प्रति किये जाते हैं, जिन्हें हम अपना नहीं मानते हैं । यद्यपि यह बड़ा कठिन कार्य है कि हम अपनी रागात्मकता या ममत्ववृत्ति का पूर्णतया विसर्जन कर सकें किन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि सीमा तक विसर्जन किये बिना अपेक्षित सामाजिक जीवन का विकास नहीं वह व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन या स्वार्थ भावना से ऊपर नहीं उठने देता । स्वहित की या राष्ट्र के प्रति समान रूप से सामाजिकता की होते हुए सच्चा सामाजिक जीवन फलित नहीं हो सकता । जिस प्रकार परिवार के प्रति ममत्व का सघन रूप हममें राष्ट्रीय चेतना का विकास नहीं कर सकता उसी प्रकार राष्ट्रीयता के प्रति भी ममत्व सच्ची मानवीय एकता में सहायक सिद्ध नहीं हो सकता । इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति जब तक राग या आसक्ति से ऊपर नहीं उठता तब तक सामाजिकता का सद्भाव सम्भव नहीं हो सकता । समाज त्याग एवं समर्पण के आधार पर खड़ा होता है अतः वीतराग या अनासक्त दृष्टि ही सामाजिक जीवन के लिए वास्तविक आधार प्रस्तुत कर सकती है और सम्पूर्ण मानव-जाति में सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण कर सकती है । यदि हम सामाजिक सम्बन्धों में उत्पन्न होने वाली विषमता एवं टकराहट के कारणों का विश्लेषण करें तो उसके मूल में हमारी आसक्ति या रागात्मकता ही प्रमुख है । आसक्ति, ममत्व भाव या राग कारण ही मनुष्य में उसका एक हो सकता राष्ट्र की सीमा । वृत्ति चाहे वह परिवार के प्रति हो विरोधी ही सिद्ध होती है । उसके 1 १. बोधिचर्यावतार ८।१३४-१३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only व्यक्ति का ममत्व चाहे तक विस्तृत हो, हमें www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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