________________
भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना
१५१ सम्बन्ध अनिवार्यतया हमारे सामाजिक जीवन से ही है। प्रश्नव्याकरणसूत्र नामक जैन आगम में कहा गया है कि 'तीर्थंकर का यह सुकथित प्रवचन सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है। पांचों महावत सर्वप्रकार से लोकहित के लिए ही है।' हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, संग्रह (परिग्रह) ये सब वैयक्तिक नहीं, सामाजिक जीवन की दुष्प्रवृत्तियाँ हैं। ये सब दूसरों के प्रति हमारे व्यवहार से संबंधित है। हिंसा का अर्थ है किसी अन्य की हिंसा, असत्य का मतलब है किसी अन्य को गलत जानकारी देना, चोरी का अर्थ है किसी दूसरे की सम्पत्ति का अपहरण करना, व्यभिचार का मतलब है सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध यौन सम्बन्ध स्थापित करना, इसी प्रकार संग्रह या परिग्रह का अर्थ है समाज में आर्थिक विषमता पैदा करना । क्या समाज जीवन के अभाव में इनका कोई अर्थ या संदर्भ रह जाता है ? अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की जो मर्यादायें इन दर्शनों ने दी वे हमारे सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि के लिए ही है।
इसी प्रकार जैन, बौद्ध और योग दर्शनों की साधना पद्धति में समान रूप से प्रस्तुत मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थ भावनाओं के आधार पर भी सामाजिक संदर्भ को स्पष्ट किया जा सकता है। जैनाचार्य अमितगति इन भावनाओं की अभिव्यक्ति निम्न शब्दों में करते हैं:
सत्वेषु मैत्री गुणीषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् ।
मध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ॥२ 'हे प्रभ, हमारे मनों में प्राणियों के प्रति मित्रता, गुणीजनों के प्रति प्रमोद, दुखियों के प्रति करुणा तथा दुष्ट जनों के प्रति मध्यस्थ भाव सदा विद्यमान रहें ।' इस प्रकार इन भावनाओं के माध्यम से समाज के विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों से हमारे सम्बन्ध किस प्रकार के हों यही स्पष्ट किया गया है। समाज में दूसरे लोगों के साथ हम किस प्रकार जीवन जियें यह हमारी सामाजिकता के लिए अति आवश्यक है और इन दर्शनों में इस प्रकार से व्यक्ति को समाज-जीवन से जोड़ने का ही प्रयास किया गया है । इन दर्शनों का हृदय रिक्त नहीं है । इनमें प्रेम और करुणा की अटूट धारा बह रही है। तीर्थंकर की वाणी का प्रस्फुटन ही लोक की करुणा के लिए होता है (समेच्च लोये खेयन्ने पव्वइये)। इसीलिए तो आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं-'सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव', 'हे प्रभो आपका अनुशासन सभी दुःखों का अन्त करने वाला और सभी का कल्याण (सर्वोदय) करने वाला है ।' जैन आगमों में प्रस्तुत कुल-धर्म, ग्राम-धर्म, नगरधर्म, राष्ट्र-धर्म एवं गण-धर्म भी उसकी समाज-सापेक्षता को स्पष्ट कर देते हैं । त्रिपिटक में भी अनेक संदर्भो में व्यक्ति के विविध सामाजिक सम्बन्धों के आदर्शों का चित्रण १. प्रश्नव्याकरण १।१।२१-२२ २. सामायिक पाठ (अमितगति)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org