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निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग
पर स्थित नहीं कर पाया है, उससे लोक-मंगल की कामना सबसे बड़ा भ्रम है, छलना है। यदि व्यक्ति के जीवन में वासना का अभाव नहीं है, उसकी लोभ की ज्वाला शान्त नहीं हुई है, तो उसके द्वारा किया जानेवाला लोकहित भी इनसे ही उद्भूत होगा। उसके लोकहित में भी स्वार्थ एवं वासना छिपी होगी और ऐसा लोकहित जो वैयक्तिक वासना एवं स्वार्थ की पूर्ति के लिए किया जा रहा है, लोकहित ही नहीं होगा।
उपाध्याय अमरमुनिजी जैन-दृष्टि को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, 'व्यक्तिगत जीवन में जब तक निवृत्ति नहीं आ जाती तब तक समाज-सेवा की प्रवृत्ति विशुद्ध नहीं हो सकती। अपने व्यक्तिगत जीवन में मर्यादाहीन भोग और आकांक्षाओं से निवृत्ति लेकर समाजकल्याण के लिए प्रवृत्त होना जैन-दर्शन का पहला नीतिधर्म है। व्यक्तिगत जीवन का शोधन करने के लिए असत्कर्मों से पहले निवृत्ति करनी होती है। जब निवृत्ति आयेगी तो जीवन पवित्र और निर्मल होगा, अन्तःकरण विशुद्ध होगा और तब जो भी प्रवृत्ति होगी वह लोक-हिताय एवं लोक-सुखाय होगी। जैन-दर्शन की निवृत्ति का हार्द व्यक्तिगत जीवन में निवृत्ति और सामाजिक जीवन में प्रवृत्ति है । लोकसेवक या जनसेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थ एवं द्वन्द्वों से दूर रहें, यह जैन-दर्शन की आचार-संहिता का पहला पाठ है।'
आत्महित ( वैयक्तिक नैतिकता ) और लोकहित ( सामाजिक नैतिकता ) परस्पर विरोधी नहीं हैं, वे नैतिक पूर्णता के दो पहलू हैं । आत्महित में परहित और परहित में आत्महित समाहित है। आत्मकल्याण और लोककल्याण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जिन्हें अलग देखा तो जा सकता है, अलग किया नहीं जा सकता । जैन, बौद्ध एवं गीता की विचार धाराएँ आत्मकल्याण (निवृत्ति) और लोक-कल्याण (प्रवृत्ति) को अलग-अलग देखती तो हैं, लेकिन उन्हें एक-दूसरे से पृथक्-पृथक् करने का प्रयास नहीं करतीं।
प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों आवश्यक-निवृत्ति और प्रवृत्ति का समग्र विवेचन हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचाता है कि हम निवृत्ति या प्रवृत्ति का चाहे जो अर्थ ग्रहण करें, हर स्थिति में, एकान्त रूप से निवृत्ति या प्रवृत्ति के सिद्धान्त को लेकर किसी भी आचार-दर्शन का सर्वाग विकास नहीं हो सकता। जैसे जीवन में आहार और निहार दोनों आवश्यक हैं, इतना ही नहीं उनके मध्य समुचित सन्तुलन भी आवश्यक है, वैसे ही प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों आवश्यक है। पं० सखलाल जी का विचार है कि समाज कोई भी हो वह मात्र निवृत्ति की भूल-भुलैया पर जीवित नहीं रह सकता और न नितांत प्रवृत्ति ही साध सकता है। यदि प्रवृत्ति-चक्र का महत्त्व मानने वाले आखिर में प्रवृत्ति के तूफान और आँधी में फंसकर मर सकते हैं तो यह भी सच है कि प्रवृत्ति का आश्रय लिये बिना मात्र निवृत्ति हवाई किला बन जाती है। ऐतिहासिक और दार्शनिक सत्य यह है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति मानव-कल्याण रूपी सिक्के के दो पहलू हैं। दोष, गलती, बुराई और १. श्री अमर भारती ( अप्रैल १९६६ ), पृ० २१
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