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________________ १४० जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन अकल्याण से तब तक कोई नहीं बच नहीं सकता, जब तक कि दोष-निवृत्ति के साथ-साथ सद्गुणप्रेरक और कल्याणमय प्रवृत्ति में प्रवृत्त न हुआ जाय । बीमार व्यक्ति केवल कुपथ्य के सेवन से निवृत्त होकर ही जीवित नहीं रह सकता, उसे रोग निवारण के लिए पथ्य का सेवन भी करना होगा। शरीर से दूषित रक्त को निकाल डालना जीवन के लिए अगर जरूरी है तो उसमें नये रक्त का संचार करना भी उतना ही जरूरी है ।' प्रवृत्ति और निवत्ति की सीमाएं एवं क्षेत्र-जैन-दर्शन की अनेकांतवादी व्यवस्था यह मानती है कि न प्रवृत्तिमार्ग ही शुभ है और न एकांतरूप से निवृत्तिमार्ग ही शुभ है। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों में शुभत्व-अशुभत्व के तत्त्व हैं। प्रवृत्ति शुभ भी है और अशुभ भी । इसी प्रकार निवृत्ति शुभ भी है और अशुभ भी । प्रवृत्ति और निवृत्ति के अपने-अपने क्षेत्र हैं, स्वस्थान हैं और अपने-अपने स्वस्थानों में वे शुभ है, लेकिन परस्थानों या क्षेत्रों में वे अशुभ हैं। न केवल आहार से जीवन-यात्रा सम्भव है और न केवल निहार से । जीवन-यात्रा के लिए दोनों आवश्यक हैं, लेकिन सम्यक् जीवन-यात्रा के लिए दोनों का अपने-अपने क्षेत्रों में कार्यरत होना भी आवश्यक है । यदि आहार के अंग निहार का और निहार के अंग आहार का कार्य करने लगे अथवा आहार योग्य पदार्थों का निहार होने लगे और निहार के पदार्थों का आहार किया जाने लगे तो व्यक्ति का स्वास्थ्य चौपट हो जायेगा। वे ही तत्त्व जो अपने स्वस्थान एवं देशकाल से शुभ हैं, परस्थान में अशुभ रूप में परिणत हो जायेंगे। __जैन दृष्टिकोण-भगवान् महावीर ने प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों को नैतिक विकास के लिये आवश्यक कहा है। इतना ही नहीं, उन्होंने प्रवृत्ति और निवृत्ति के अपने-अपने क्षेत्रों की व्यवस्था भी की और यह बताया कि वे स्वक्षेत्रों में कार्य करते हुए ही नैतिक विकास की ओर ले जा सकती हैं। व्यक्ति के लिए यह भी आवश्यक है कि वह प्रवृत्ति और निवृत्ति के स्वक्षेत्रों एवं सीमाओं को जाने और उनका अपने-अपने क्षेत्रों में ही उपयोग करे। जिस प्रकार मोटर के लिए गतिदायक यंत्र (एक्सीलेटर ) और गतिनिरोधक यंत्र ( ब्रेक ) दोनों ही आवश्यक हैं, लेकिन साथ ही मोटर चालक के लिए यह भी आवश्यक है कि दोनों के उपयोग के अवसरों या स्थानों को समझे और यथावसर एवं यथास्थान ही उनका उपयोग करें । दोनों के अपने-अपने क्षेत्र हैं; और उन क्षेत्रों में ही उनका समुचित उपयोग यात्रा की सफलता का आधार है। यदि चालक उतार पर क न लगाये और चढ़ाव पर एक्सीलेटर न दबाये अथवा उतार पर एक्सीलेटर दबाये और चढ़ाव पर ब्रेक लगाये तो मोटर नष्ट-भ्रष्ट हो जायगी । महावीर ने जीवन १. देखिये-जैनधर्म का प्राण; पृ० ६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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