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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
का निर्मूल नाश
का सुधार करना है । प्रवर्तक धर्म समाजगामी था, इसका मतलब यह था कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में रहकर ही सामाजिक कर्तव्य ( जो ऐहिक जीवन से सम्बन्ध रखते हैं ) और धार्मिक कर्तव्य ( जो पारलौकिक जीवन से सम्बन्ध रखते हैं ) का पालन करे । व्यक्ति को सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों का पालन करके अपनी कृपण इच्छा का संशोधन करना इष्ट है, पर उस ( सुख की इच्छा करना न शक्य है और न इष्ट । प्रवर्तक धर्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के लिए गृहस्थाश्रम जरूरी है । उसे लाँघकर कोई विकास नहीं कर सकता । निवर्तक धर्म व्यक्तिगामी है । वह आत्मसाक्षात्कार की उत्कृष्ट वृत्ति से उत्पन्न होने के कारण जिज्ञासु को — आत्मतत्त्व है या नहीं ? है तो कैसा है ? क्या उसका साक्षात्कार संभव है ? और है तो किन उपायों से संभव है ? इन प्रश्नों की ओर प्रेरित करता है । ये प्रश्न ऐसे नहीं हैं कि जो एकान्त, चिन्तन, ध्यान, तप और असंगतापूर्ण जीवन के सिवाय सुलझ सकें । ऐसा सच्चा जीवन खास व्यक्तियों के लिए ही सम्भव हो सकता है । उनका समाजगामी होना सम्भव नहीं । अतएव निवर्तक धर्म समस्त सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों से बद्ध होने की बात नहीं मानता । उसके अनुसार व्यक्ति के लिए मुख्य कर्तव्य एक ही है और वह यह कि जिस तरह हो आत्म-साक्षात्कार का और उसमें रुकावट डालनेवाली इच्छा के नाश का प्रयत्न करे ।"
भारतीय चिन्तन में नैतिक दर्शन की समाजगामी एवं व्यक्तिगामी, यह दो विधाएँ तो अवश्य रही हैं । परन्तु इनमें कभी भी आत्यन्तिक विभेद स्वीकार किया गया हो ऐसा प्रतीत नहीं होता। जैन और बौद्ध आचार-दर्शनों में प्रारम्भ में वैयक्तिक कल्याण का स्वर ही प्रमुख था, लेकिन वहाँ पर भी हमें सामाजिक भावना या लोकहित से पराङ्मुखता नहीं दिखाई देती है । बुद्ध और महावीर की संघ व्यवस्था स्वयं ही इन आचार- दर्शनों की सामाजिक भावना का प्रबलतम साक्ष्य है । दूसरी ओर गीता का आचार-दर्शन जो लोक-संग्रह अथवा समाज कल्याण की आया था, उसमें भी वैयक्तिक निवृत्ति का अभाव नहीं हैं ! कल्याण की भावना को आवश्यक मानते हैं, लेकिन उसके लिए वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति आवश्यक है । जब तक वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति की भावना का विकास नहीं होता, तब तक लोक-कल्याण की साधना सम्भव नहीं है । आत्महित अर्थात् वैयक्तिक जीवन में नैतिक स्तर का विकास लोकहित का पहला चरण है। सच्चा लोक-कल्याण तभी सम्भव है, जब व्यक्ति निवृत्ति के द्वारा अपना नैतिक विकास कर ले | वैयक्तिक नैतिक विकास एवं आत्म-कल्याण के अभाव में लोकहित की साधना पाखण्ड है, दिखावा है । जिसने आत्म-विकास नहीं किया है, जो अपने वैयक्तिक जीवन को नैतिक विकास की भूमिका
दृष्टि को लेकर ही आगे तीनों आचार-दर्शन लोक
१. जैनधर्म का प्राण, पृ० ५६, ५८, ५९
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