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i: बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
स्मरण रखना चाहिए कि जब तक कर्मासक्ति या फलाकांक्षा समाप्त नहीं होती, तब तक केवल कर्मसंन्यास से मुक्ति नहीं मिल सकती। दूसरी ओर यदि साधक अपनी परिस्थिति या योग्यता के आधार पर कर्मयोग के मार्ग को चुनता है तो भी यह ध्यान में रखना चाहिए कि फलाकांक्षा या आसक्ति का त्याग तो अनिवार्य है।
संक्षेप में, गीताकार का दृष्टिकोण यह है कि यदि कर्म करना है तो उसे अनासक्तिपूर्वक करो और यदि कर्म छोड़ना है तो केवल बाह्य कर्म का परित्याग ही पर्याप्त नहीं है, कर्म की आन्तरिक वासनाओं का त्याग ही आवश्यक है। गीता में बाह्य कर्म करने और छोड़ने का जो विधि-निषेध है वह औपचारिक है, कर्तव्यता का प्रतिपादक नहीं है । वास्तविक कर्तव्यता का प्रतिपादक विधि-निषेध तो आसक्ति, तृष्णा, समत्व आदि के सम्बन्ध में है। गीता का प्रतिपाद्य विषय तो समत्वपूर्ण वीतरागदृष्टि की प्राप्ति और आसक्ति का परित्याग ही है । यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि मनुष्य प्रवृत्ति-लक्षणरूप गृहस्थधर्म का आचरण कर रहा है या निवृत्ति-लक्षणरूप संन्यासधर्म का पालन कर रहा है । महत्त्वपूर्ण यह है कि वह वासनाओं से कितना ऊपर उठा है, आसक्ति की मात्रा कितने अंश में निर्मूल हुई है और समत्वदृष्टि की उपलब्धि में उसने कितना विकास किया है।
निष्कर्ष-यदि हम इस गहन विवेचना के आधार रूप निवृत्ति का अर्थ राग-द्वेष से अलिप्त रहना मानें तो तीनों आचार-दर्शन निवृत्तिपरक ही सिद्ध होते हैं। जैन दर्शन का मूल केन्द्र अनेकान्तवाद जिस समन्वय की भूमिका पर विकसित होता है वह मध्यस्थ भाव है और वही राग-द्वेष से अलिप्तता है । यही जैन-दृष्टि में यथार्थ निवृत्ति है । पं० सुखलालजी लिखते हैं, “अनेकान्तवाद जैन तत्त्वज्ञान की मूल नीव है और राग-द्वेष के छोटे-बड़े प्रसंगों से अलिप्त रहना (निवृत्ति) समग्र आचार का मूल आधार है । अनेकान्तवाद का केन्द्र मध्यस्थता में है और निवृत्ति भी मध्यस्थता से ही पैदा होती है । अतएव अनेकान्तवाद और निवृत्ति ये दोनों एक दूसरे के पूरक एवं पोषक हैं। ..."जैन-धर्म का झुकाव निवृत्ति की ओर है। निवृत्ति याने प्रवृत्ति का विरोधी दूसरा पहल । प्रवृत्ति का अर्थ है राग-द्वेष के प्रसंगों में रत होना । जीवन में गृहस्थाश्रम रागद्वेष के प्रसंगों के विधान का केन्द्र है । अतः जिस धर्म में गृहस्थाश्रम (राग-द्वेष के प्रसंगों से युक्त अवस्था) का विधान किया गया हो वह प्रवृत्ति-धर्म, और जिस धर्म में (ऐसे) गृहस्थाश्रम का नहीं, परन्तु केवल त्याग का विधान किया गया हो वह निवृत्ति-धर्म । जैनधर्म निवृत्ति धर्म होने पर भी उसके पालन करनेवालों में जो गृहस्थाश्रम का विभाग है, वह निवृत्ति की अपूर्णता के कारण है । सर्वांश में निवृत्ति प्राप्त करने में असमर्थ व्यक्ति जितने अंशों में निवृत्ति का सेवन न कर सके उन अंशों में अपनी परिस्थिति के अनुसार विवेकदृष्टि से प्रवृत्ति की मर्यादा कर सकते हैं, परन्तु उस प्रवृत्ति का विधान जैनशास्त्र
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