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निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग
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गीता का दृष्टिकोण समन्वयात्मक- - गीता में प्रवृत्तिप्रधान गृहस्थधर्म और निवृत्तिप्रधान संन्यासधर्म दोनों स्वीकृत हैं । गीता के अधिकांश टीकाकार भी इस विषय में एकमत हैं कि गीता में दोनों प्रकार की निष्ठाएँ स्वीकृत हैं । दोनों से ही परमसाध्य की प्राप्ति संभव है । लोकमान्य तिलक लिखते हैं 'ये दोनों मार्ग अथवा निष्ठाएँ ब्रह्मविद्यामूलक हैं । दोनों में मन की निष्कामावस्था और शान्ति (समत्दवृत्ति ) एक ही प्रकार की है । इस कारण दोनों मार्गों से अन्त में मोक्ष प्राप्त होता है । ज्ञान के पश्चात् कर्म को ( अर्थात् गृहस्थ धर्म को छोड़ बैठना और काम्य ( आसक्तियुक्त) कर्म छोड़कर निष्काम कर्म ( अनासक्तिपूर्वक व्यवहार) करते रहना, यही इन दोनों में भेद है ।" दूसरी ओर आचार्य शंकर ने भी यह स्पष्ट कर दिया है कि संन्यास का वास्तविक अर्थ विशेष परिधान को धारण कर लेना अथवा गृहस्थ कर्म का परित्याग कर देना मात्र नहीं है । वास्तविक संन्यास तो कर्म-फल, संकल्प, आसक्ति या वासनाओं का परित्याग करने में है । वे कहते हैं कि केवल अग्निरहित, क्रियारहित पुरुष ही संन्यासी या योगी है, ऐसा नहीं मानना चाहिए। कर्म-फल के संकल्प का त्याग होने से ही संन्यासित्व है, न केवल अग्निरहित और क्रियारहित (व्यक्ति) संन्यासी या योगी होता है, किन्तु जो कोई कर्म करने वाला (गृहस्थ ) भी कर्मफल और आसक्ति को छोड़कर अन्तःकरण की शुद्धिपूर्वक कर्मयोग में स्थित है, वह भी संन्यासी और योगी है | 3
वस्तुतः गीताकार की दृष्टि में संन्यासमार्ग और कर्ममार्ग दोनों ही परमलक्ष्य की ओर ले जाने वाले हैं जो एक का भी सम्यक्रूप से पालन करता है वह दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है । जिस स्थान की प्राप्ति एक संन्यासी करता है, उसी स्थान की प्राप्ति एक अनासक्त गृहस्थ ( कर्मयोगी ) भी करता है ।" गीताकार का मूल उपदेश न तो कर्म करने का हैं और न कर्म छोड़ने का है । उसका मुख्य उपदेश तो आसक्ति या कामना के त्याग का है । गीताकार की दृष्टि में नैतिक जीवन का सार तो आसक्ति या फलाकांक्षा का त्याग है । जो विचारक गीता की इस मूल भावना को दृष्टि में रखकर विचार करेंगे उन्हें कर्म-संन्यास और कर्मयोग में अविरोध ही दिखाई देगा । गीता की दृष्टि में कर्म-संन्यास और कर्मयोग, दोनों नैतिक जीवन के बाह्य शरीर हैं, नैतिकता की मूलात्मा समत्व या निष्कामता है | यदि निष्कामता है, समत्वयोग की साधना है, वीतरागदृष्टि है, तो कर्मसंन्यास की अवस्था हो या कर्मयोग की दोनों ही समान रूप से नैतिक आदर्श को उपलब्धि कराते हैं । इसके विपरीत यदि उनका अभाव है तो कर्मयोग और कर्मसंन्यास दोनों ही अर्थशून्य हैं, नैतिकता की दृष्टि से उनका कुछ भी मूल्य नहीं है । गीताकार का कहना हैं कि यदि साधक अपनी परिस्थिति या योग्यता के आधार पर संन्यासमार्ग ( कर्मसंन्यास) को अपनाता है तो उसे यह २. गीता ( शा० ), ६.१ ३. वही, ६ पूर्वभूमिका ५. वही ५1५
१. गीतारहस्य, पृ० ३५८ । ४. वही, ५१४
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