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________________ १२८ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन कर्ममार्ग' का उपदेश दिया गया है । यद्यपि गीता के टीकाकार उन दोनों में से किसी एक की महत्ता को स्थापित करने का प्रयास करते रहे हैं। शंकर का संन्यासमार्गीय दृष्टिकोण-आचार्य शंकर गीता भाष्य में गीता के उन समस्त प्रसंगों की, जिनमें कर्मयोग और कर्मसंन्यास दोनों को समान बल वाला माना गया है अथवा कर्मयोग की विशेषता का प्रतिपादन किया गया है, व्याख्या इस प्रकार प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं कि संन्यासमार्ग की श्रेष्ठता प्रतिष्ठापित हो । वे लिखते हैं, 'प्रवृत्तिरूप कर्मयोग की और निवृत्तिरूप परमार्थ या संन्यास के साथ जो समानता स्वीकार की गयी है, वह किसी अपेक्षा से ही है । परमार्थ (संन्यास) के साथ कर्मयोग की कर्तृ-विषयक समानता है । क्योंकि जो परमार्थ संन्यासी है वह सब कर्म-साधनों का त्याग कर चुकता है, इसलिए सब कर्मों का और उनके फलविषयक संकल्पों का, जो कि प्रवृत्ति हेतुक काम के कारण हैं, त्याग करता हैं और इस प्रकार परमार्थ संन्यास की और कर्मयोग की कर्ता के भावविषयक त्याग की अपेक्षा से समानता है । गोता के एक अन्य प्रसंग की, जिसमें कर्म-संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग की विशेषता का प्रतिपादन किया है, आचार्य शंकर व्याख्या करते हैं कि 'ज्ञानरहित केवल संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग विशेष है। इस प्रकार आचार्य शंकर यही सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि गीता में ज्ञानसहित संन्यास तो निश्चय ही कर्मयोग से श्रेष्ठ माना गया है। उनके अनुसार कर्मयोग तो ज्ञान-प्राप्ति का साधन है, लेकिन मोक्ष तो ज्ञानयोग से ही होता है और ज्ञाननिष्ठा के अनुष्ठान का अधिकार संन्यासियों का ही है। तिलक का कर्ममार्गीय दृष्टिकोण-तिलक के अनुसार गीता कर्ममार्ग की प्रतिपादक है। उनका दृष्टिकोण शंकर के दृष्टिकोण से विपरीत है । वे लिखते हैं कि इस प्रकार यह प्रकट हो गया कि कर्म-संन्यास और निष्काम-कर्म दोनों वैदिक धर्म के स्वतन्त्र मार्ग हैं और उनके विषय में गीता का यह निश्चित सिद्धान्त है कि वे वैकल्पिक नहीं हैं, किन्तु संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग की योग्यता विशेष है । वे गीता के इस कथन पर कि 'कर्म-संन्यास से कर्मयोग विशेष है' (कर्म संन्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते) अत्यधिक भार देते हैं और उसको ही मूल-केन्द्र मानकर समग्र गीता के दृष्टिकोण को स्पष्ट करना चाहते हैं। उनका कहना है कि गीता स्पष्ट रूप से यह भी संकेत करती है कि बिना संन्यास ग्रहण कियेहुए भी व्यक्ति परम-सिद्धि प्राप्त कर सकता है । गीताकार ने जनकादि का उदाहरण देकर अपनी इस मान्यता को परिपुष्ट किया है । अतः गीता को गृहस्थधर्म या प्रवृत्तिमार्ग का ही प्रतिपादक मानना चाहिए। १. गीता, ३।३ ४. वही ५१२ ७. गीता, ३।२० २. वही, ३।३ ५. वही ३३ ३. गीता (शां) ६२ ६. गीता-रहस्य, पृ० ३२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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