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निवृत्तिमागं ओर प्रवृत्तिमागं
है, क्योंकि यह नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास का सुलभ मार्ग है, उसमें सम्भावनाओं की अल्पता है; जब कि व्यक्तिगत आधार पर गृहस्थधर्म भी सकता है । जो व्यक्ति गृहस्थ जीवन में भी अनासक्त भाव से रहता है, कीचड़ में रह कर भी उससे अलिप्त रहता है, वह निश्चय ही साधारण साधुओं की अपेक्षा श्रेष्ठ है । गृहस्थ के वर्ग से साधुओं का वर्ग श्रेष्ठ होता हैं, लेकिन कुछ साधुओं की अपेक्षा कुछ गृहस्थ भी श्रेष्ठ होते हैं । १ गृहस्थ के प्रवृत्यात्मक जीवन और साधु के निवृत्यात्मक जीवन के प्रति जैन दृष्टि का यही सार है । उसे न गृहस्थजीवन की प्रवृत्ति का आग्रह है और न संन्यास - मार्ग की निवृत्ति का आग्रह है । उसे यदि आग्रह है तो वह अनाग्रह का ही आग्रह हैं, अनासक्ति का ही आग्रह है । प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही उसे स्वीकार है- यदि वे इस अनाग्रह या अनासक्ति के लक्ष्य की यात्रा में सहायक हैं । गृहस्थ जीवन और संन्यास के यह बाह्य भेद उसकी दृष्टि में उतने महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितनी साधक की मनःस्थिति एवं उनकी अनासक्त भावना । वेशविशेष या आश्रम विशेष का ग्रहण साधना का सही अर्थ नहीं है । उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट निर्देश है, 'चीवर, मृगचर्म, नग्नत्व, जटा, जीर्ण वस्त्र और मुण्डन अर्थात् संन्यास जीवन के बाह्य लक्षण दुःशील की दुर्गति से रक्षा नहीं कर सकते । भिक्षु भी यदि दुराचारी हो तो नरक से बच नहीं सकता । गृहस्थ हो अथवा भिक्षु, सम्यक् आचरण करनेवाला दिव्य लोकों को ही जाता है । गृहस्थ हो अथवा भिक्षु, जो भी कषायों एवं आसक्ति से निवृत्त है एवं संयम एवं तप से परिवृत हैं, वह दिव्य स्थानों को ही प्राप्त करता है ।
गीता का दृष्टिकोण - वैदिक आचार-दर्शन में भी प्रवृत्ति और निवृत्ति क्रमशः गृहस्थ धर्म और संन्यास धर्म के अर्थ में गृहीत है । इस अर्थ विवक्षा के आधार पर वैदिक परम्परा में प्रवृत्ति और निवृत्ति का यथार्थ स्वरूप समझने का प्रयास करने पर ज्ञात होता है कि वैदिक परम्परा मूल रूप में चाहे प्रवृत्ति परक रही हो, लेकिन गीता के युग तक उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति के तत्त्व समान रूप से प्रतिष्ठित हो चुके थे । परमसाध्य की प्राप्ति के लिए दोनों को ही साधना का मार्ग मान लिया महाभारत शान्तिपर्व में स्पष्ट लिखा है कि 'प्रवृत्ति लक्षण धर्म (गृहस्थ निवृत्ति लक्षण धर्म (संन्यास धर्म ) यह दोनों ही मार्ग वेदों में समान रूप से प्रतिष्ठित हैं। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, "हे निष्पाप अर्जुन, पूर्व में ही मेरे द्वारा जीवन शोधन की इन दोनों प्रणालियों का उपदेश दिया गया था। उनमें ज्ञानी या चिन्तनशील
गया था ।
धर्म) और
व्यक्तियों के लिए ज्ञानमार्ग या संन्यासमार्ग
का और कर्मशील व्यक्तियों के लिए
१. उत्तराध्ययन, ५।२० ३. महाभारत शान्तिपर्व, २४०।६०
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२. वही, ५।२० - २३, २८ ४. गीता (शां), ३३
१२७
पतन की
श्रेष्ठ हो
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