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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
समत्व के भंग होने के अवसर या राग-द्वेष के प्रसंग गृहस्थ जीवन में अधिक होते हैं और यदि कोई साधक उस अवस्था में समत्व दृष्टि रख पाने में अपने को असमर्थ पाता है तो उसके लिए यही उचित है कि वह संन्यास के सुरक्षित क्षेत्र में ही विचरण करे | जैसे चोरों से धन की सुरक्षा के लिए व्यक्ति के सामने दो विकल्प हो सकते हैंएक तो यह कि व्यक्ति अपने में इतनी योग्यता एवं साहस विकसित कर ले कि वह कभी भी चोरों से संघर्ष में पराभूत न हो, किन्तु यदि वह अपने में इतना साहस नहीं पाता है तो उचित यही है कि वह किसी सुरक्षित एवं निरापद स्थान की ओर चला जा । इसी प्रकार संन्यास आत्मा के समत्वरूप धन की सुरक्षा के लिए निरापद स्थान में रहना है, जिसे बौद्धिक दृष्टि से असंगत नहीं माना जा सकता । जैन धर्म संन्यासमार्ग पर जो बल देता है, उसके पीछे मात्र यही दृष्टि है कि अधिकांश व्यक्तियों में इतनी योग्यता का विकास नहीं हो पाता कि वे गृही-जीवन में, जो कि राग-द्वेष के प्रसंगों का केन्द्र है, अनासक्त या समत्वपूर्ण मनःस्थिति बनाये रख सकें । अतः उनके लिए संन्यास हो निरापद क्षेत्र है । संन्यास का महत्त्व या आग्रह साधन मार्ग की सुलभता की दृष्टि से है । साध्य से परे साधन का मूल्य नहीं होता । जैन एवं बौद्ध दृष्टि में संन्यास का जो भी मूल्य है, साधन की दृष्टि से है । समत्वरूप साध्य की उपलब्धि की दृष्टि से तो जहाँ भी समभाव की उपस्थिति है, वह स्थान समान मूल्य का है, चाहे वह गृहस्थ धर्म हो या संन्यास धर्म ।
गृहस्थ और संन्यस्त जीवन को श्रेष्ठता ?
गृहस्थ और संन्यास जीवन में कौन श्रेष्ठ है इसका उत्तराध्ययनसूत्र में विचार हुआ । उसी प्रसंग को स्पष्ट करते हुए उपाध्याय अमरमुनिजी लिखते हैं, 'यह जीवन का क्षेत्र है, यहाँ श्रेष्ठता और निम्नता का मापतौल आत्म-परिणति पर आधारित है । किसी-किसी गृहस्थ का जीवन सन्त के जीवन से भी यदि वह अपने कर्तव्य पथ पर पूरी ईमानदारी के साथ चल रहा है । और कौन बड़ा ? इसकी नापतौल साधु और गृहस्थ के भेदभाव से नहीं जो भी अपने दायित्वों को भली प्रकार निभा रहा है, के साथ खड़ा हुआ है वही श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण है । यह अनेकान्त - दृष्टि है । यहाँ वेश महत्ता नहीं दी जाती, बाह्य जीवन को नहीं देखा जाता, किन्तु अन्तरात्मा के विचारों को टटोला जाता है। कौन कितना कर रहा है ( मात्र ) यह नहीं देखा जाता, पर कौन कैसा कर रहा है इसी पर ध्यान दिया जाता है ।' १ वस्तुतः जैन-दर्शन के अनुसार गृहस्थ और संन्यासी के जीवन में श्रेष्ठता और अश्रेष्ठता का माप सामान्य दृष्टि और वैयक्तिक दृष्टि ऐसे दो आधारों पर किया जाता है । सामान्यतः संन्यासधर्म श्रेष्ठ
१. अमरभारती, मई १९६५, पृ० १०
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श्रेष्ठ होता है, कौन छोटा है
की जा सकती । साधु और श्रावक, जिन्दगी के मोर्चे पर सावधानी
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