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सम्यकतप तथा योगमार्ग
११३ १६. धृतिपूर्वक मतिमान् होना । १७. संवेगयुक्त होना । १८. प्रनिधि-माया (कपट) न करना । १९. सुविधि-सदनुष्ठान । २०. संवरयुक्त होना । २१. अपने दोषों का निरोध करना । २२.सब कामों (विषयों) से विरक्त रहना । २३. मूलगुणों का शुद्ध पालन करना। २४. उत्तरगुणों का शुद्ध पालन करना । २५. व्युत्सर्ग करना । २६. प्रमाद न करना। २७. क्षण-क्षण में समाचारी-अनुष्ठान करना । २८. ध्यान-संवरयोग करना । २९. मारणान्तिक कष्ट आने पर भी अपने ध्येय से विचलित न होना। ३०. संग का परित्याग करना । ३१. प्रायश्चित्त ग्रहण करना । ३२. मरणकाल में आराधक बनना ।
३. आसन-स्थिर एवं बैठने के सुखद प्रकार-विशेष को आसन कहा गया है। जैन परम्परा में बाह्य तप के पांचवें काया-क्लेश में आसनों का भी समावेश है । औपपातिक सूत्र एवं दशाश्रुतस्कंधसूत्र में वीरासन, भद्रासन, गोदुहासन और सुखासन आदि अनेक आसनों का विवेचन है।
४. प्राणायाम-~-प्राण, अपान, समान', उदान और व्यान ये पाँच प्राणवायु है। इन प्राणवायुओं पर विजय प्राप्त करना ही प्राणायाम है । इसके रेचक, पूरक और कुम्भक ये तीन भेद हैं । यद्यपि जैन धर्म के मूल आगमों में प्राणायाम सम्बन्धी विवेचन उपलब्ध नहीं है, तथापि आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव और आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र में प्राणायाम का विस्तृत विवेचन है। - ५. प्रत्याहार-इन्द्रियों की बहिर्मुखता को समाप्त कर उन्हें अन्तर्मुखी करना प्रत्याहार है। जैन दर्शन में प्रत्याहार के स्थान पर प्रतिसंलीनता शब्द का प्रयोग हुआ है। वह चार प्रकार की है-१. इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता, २. कषाय-प्रतिसंलीनता, ३. योग-प्रतिसंलीनता और ४. विविक्त शयनासन सेवनता। इस प्रकार योग दर्शन के प्रत्याहार का समावेश जैन-दर्शन की प्रतिसंलीनता में हो जाता है ।
६. धारणा-चित्त की एकाग्रता के लिए उसे किसी स्थान-विशेष पर केन्द्रित करना धारणा है । धारणा का विषय प्रथम स्थूल होता है जो क्रमशः सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होता जाता है । जैन आगमों मेंधारणा का वर्णन स्वतंत्र रूप में नहीं मिलता, यद्यपि उसका उल्लेख ध्यान के एक अंग के रूप में अवश्य हुआ है । जैन-परम्परा में ध्यान की अवस्था में नासिकाग्र पर दृष्टि केन्द्रित करने का विधान है । दशाश्रुतस्कंधसूत्र में भिक्षुप्रतिमाओं का विवेचन करते हुए एक-पुद्गलनिविदृष्टि का उल्लेख है ।
७. ध्यान-जैन-परम्परा में योग-साधना के रूप में ध्यान का विशेष विवेचन उपलब्ध है।
८. समाधि-चित्तवृत्ति का स्थिर हो जाना अथवा उसका क्षय हो जाना समाधि हैं । जैन-परम्परा में समाधि शब्द का प्रयोग तो काफी हुआ है, लेकिन समाधि को ध्यान १, समवायांग ३२ ।
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