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जैन, बौद्ध तथा गोता के माचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
४. सुख-दुःख एवं सौमनस्य-दौर्मनस्य से रहित असुख-अदुःखात्मक उपेक्षा एवं
परिशुद्धि से युक्त चतुर्थ ध्यान । इस प्रकार चारों ध्यान जैन-परम्परा में भी थोड़े शाब्दिक अन्तर के साथ उपस्थित हैं । योग-परम्परा में भी समापत्ति के चार प्रकार बतलाये हैं, जो कि जैन-परम्परा के समान ही लगते हैं। समापत्ति के वे चार प्रकार निम्नानुसार हैं-१. सवितर्का, २. निर्वितर्का, ३. सविचारा, ४. निविचारा । इस विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन-साधना में जिस सम्यक् तप का विधान है, वह अन्य भारतीय आचारदर्शनों में भी सामान्यतया स्वीकृत रहा है।
जैन, बौद्ध और गीता की विचारणा में जिस सम्बन्ध में मत भिन्नता है वह है अनशन या उपवास तप । बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन उपवासों की लम्बी तपस्या को इतना महत्त्व नहीं देते जितना कि जैन विचारणा देती है । इसका मूल कारण यह है कि बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन तप की अपेक्षा योग को अधिक महत्त्व देते हैं । यद्यपि यह स्मरण रखने की बात है कि जैन दर्शन की तप-साधना योग-साधना से भिन्न नहीं है । पतंजलि ने जिस अष्टांग योगमार्ग का उपदेश दिया वह कुछ तथ्यों को छोड़ कर जैन-विचारणा में भी उपलब्ध है ।
अष्टांग योग और जैन-दर्शन-योग-दर्शन में योग के आठ अंग माने गये हैं-१. यम, २. नियम, ३. आसन, ४. प्राणायाम, ५. प्रत्याहार, ६. धारणा, ७. ध्यान और ८. समाधि । इनका जैन-विचारणा से कितना साम्य है, इस पर विचार कर लेना उपयुक्त होगा।
१. यम-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच यम हैं । जैन-दर्शन में ये पांचों यम पंच महाव्रत कहे गये हैं । जैन-दर्शन और योग-दर्शन में इनकी व्याख्याएँ समान हैं।
२. नियम-नियम भी पाँच हैं--१. शौच, २. सन्तोष, ३. तप, ४. स्वाध्याय और ५. ईश्वरप्रणिधान । जैन दर्शन में ये पांचों नियम प्रसंगान्तर से मान्य है। जैन-दर्शन में नियम के स्थान पर योग-संग्रह का विवेचन उपलब्ध है। जैन आगम समवायांग में ३२ योग-संग्रह माने हैं । यथा १. अपने किये हुए पापों की गुरुजनों के पास आलोचना करना। २. किसी की आलोचना सुनकर किसी और के पास न कहना । ३. कष्ट आने पर धर्म में दृढ़ रहना । ४. किसी की सहायता की अपेक्षा न करते हुए तप करना ५. ग्रहणशिक्षा और आसेवनशिक्षा का पालन करना। ६. शरीर की निष्प्रतिक्रमता । ७. पूजा आदि की आशा से रहित होकर अज्ञात तप करना । ८. लोभपरित्याग । ९. तितिक्षा-- सहन करना । १०. ऋजुता (सरलता)। ११. शुचि (सत्य-संयम)। १२. सम्यग्दृष्टि होना। १३. समाधिस्थ होना । १४. आचार का पालन करना। १५. विनयशील होना ।
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