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________________ सम्यक तप तथा योग-मार्ग १११ जैन- विचारणा उपर्युक्त वर्गीकरण में पहले और चौथे को स्वीकार करती है और कहती है कि यदि स्वयं के कष्ट उठाने से दूसरों का हित होता है और हमारी मानसिक शुद्धि होती है तो पहला ही वर्ग सर्वश्रेष्ठ है और चौथा वर्ग मध्यममार्ग है हाँ, यह अवश्य है कि वह दूसरे और तीसरे वर्ग के लोगों को किसी रूप में नैतिक या तपस्वी स्वीकार नहीं करता । यदि हम जैन परम्परा और गीता में वर्णित तप के करके देखें तो हमें उनमें से अधिकांश बौद्ध परम्परा में मान्य (१) बौद्ध भिक्षुओं के लिए अति भोजन वर्जित है । साथ ही एक समय भोजन करने का आदेश है जो जैन- विचारणा के ऊनोदरी तप से मिलता है । गीता में भी योग साधना के लिए अति भोजन वर्जित है । (२) बौद्ध भिक्षुओं के लिए रसासक्ति का निषेध है । (३) बौद्ध साधना में भी विभिन्न सुखासनों की साधना का विधान मिलता है । यद्यपि आसनों की साधना एवं शीत एवं ताप सहन करने की धारणा बौद्ध-विचाराणा में उतनी कठोर नहीं है जितनी जैन- विचारणा में । ( ४ ) भिक्षाचर्या जैन और बौद्ध दोनों आचार-प्रणालियों में स्वीकृत है, यद्यपि भिक्षा नियमों की कठोरता जैन साधना में अधिक है । (५) विविक्त शयनासन तप भी बौद्ध विचारणा में स्वीकृत है । बौद्ध आगमों में अरण्यनिवास, वृक्षमूल-निवास, श्मशान निवास करनेवाले (जैन परिभाषा के अनुसार विविक्त शयनासन तप करनेवाले ) धुतंग भिक्षुओं की प्रशंसा की गयी है । आभ्यन्तरिक तप के छह भेद भी बौद्ध परम्परा में स्वीकृत रहे हैं । ( ६ ) प्रायश्चित्त बौद्ध परम्परा और वैदिक परम्परा में स्वीकृत रहा है बौद्ध आगमों में प्रायश्चित्त के लिए प्रवारणा आवश्यक मानी गयी है । (७) विनय के सम्बन्ध में दोनों ही विचार परम्पराएँ एकमत हैं । (८) बौद्ध परम्परा में भी बुद्ध, धर्म, संघ, रोगी, वृद्ध एवं शिक्षार्थी भिक्षुक की सेवा का विधान है । ( ९ ) इसी प्रकार स्वाध्याय एवं उसमें विभिन्न अंगों का विवेचन भी बौद्ध परम्परा में उपलब्ध है । बुद्ध ने भी वाचना, पृच्छना, परावर्तना एवं चिन्तन को समान महत्त्व दिया है । (१०) व्युत्सर्ग के सम्बन्ध में यद्यपि बुद्ध का दृष्टिकोण मध्यममार्गी है, तथापि वे इसे अस्वीकार नहीं करते हैं । व्युत्सर्ग के आन्तरिक प्रकार तो बौद्ध परम्परा में भी उसी प्रकार स्वीकृत रहे हैं जिस प्रकार वे जैन दर्शन में हैं । (११) ध्यान के सम्बन्ध में बौद्ध दृष्टिकोण भी जैन परम्परा के निकट ही आता है । बौद्ध परम्परा में चार प्रकार के ध्यान माने गये हैं- । १. सवितर्क - सविचार - विवेकजन्य प्रीतिसुखात्मक प्रथम ध्यान । २. वितर्क विचार- रहित -समाधिज प्रोतिसुखात्मक द्वितीय ध्यान । ३. प्रीति और बिराग से उपेक्षक हो स्मृति और सम्प्रजन्य से युक्त उपेक्षा स्मृति सुखबिहारी तृतीय ध्यान । Jain Education International विभिन्न प्रभेदों पर विचार प्रतीत होते हैं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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