________________
जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन में एवं विनय पर गुण के रूप में विचार किया गया है । प्रायश्चित्त गीता में शरणागति बन जाता है।
वैसे यदि समग्र वैदिक साधना की दृष्टि से जैन वर्गीकरण पर विचार किया जाये तो तप के लगभग वे सभी प्रकार वैदिक साधना में मान्य हैं।।
धर्मसूत्रों विशेषकर वैखानस सूत्र तथा अन्य स्मृति-ग्रन्थों के आधार पर इसे सिद्ध किया जा सकता है। महानारायणोपनिषद् में तो यहाँ तक कहा है कि 'अनशन से बढ़ कर कोई तप नहीं है'' । यद्यपि गीता में अनशन ( उपवास ) की अपेक्षा ऊनोदरी तप को ही अधिक महत्त्व दिया गया है। गीता यहाँ पर मध्यममार्ग अपनाती है। गीताकार कहता है, योग न अधिक खाने वाले लोगों के लिए सम्भव है, न बिलकुल ही न खानेवाले के लिए सम्भव है । युक्ताहारविहार वाला ही योग की साधना सरलतापूर्वक कर सकता है।
महर्षि पतंजलि ने तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर-प्रणिधान इन तीनों को क्रिया-योग कहा है।
बौद्ध साधना में तप का वर्गीकरण-बौद्ध-साहित्य में तप का कोई समुचित वर्गीकरण देखने में नहीं आया । 'मज्झिमनिकाय' के कन्दरकसुत्त में एक वर्गीकरण है जिसमें गीता के समान तप की श्रेष्ठता एवं निकृष्टता पर विचार किया गया है। वहाँ बुद्ध कहते हैं कि 'चार प्रकार के मनुष्य होते हैं (१) एक वे जो आत्मन्तप है परन्तु परन्तप नहीं हैं। इस वर्ग के अन्दर कठोर तपश्चर्या करनेवाले तपस्वीगण आते हैं जो स्वयं को कष्ट देते है, लेकिन दूसरे को नहीं। (२) दूसरे वे जो परन्तप है आत्मन्तप नहीं । इस वर्ग में बधिक तथा पशु बलि देनेवाले आते हैं जो दूसरों को ही कष्ट देते हैं । (३) तीसरे वे जो आत्मन्तप भी हैं और परन्तप भी अर्थात् वे लोग जो स्वयं भी कष्ट उठाते हैं और दूसरों को भी कष्ट देते हैं, जैसे-तपश्चर्या सहित यज्ञयाग करनेवाले । (४) चौथे वे जो आत्मन्तप भी नहीं हैं और परन्तप भी नहीं हैं अर्थात् वे लोग जो न तो स्वयं को कष्ट देते हैं और न औरों को ही कष्ट देते हैं । बुद्ध भी गीता के समान यह कहते हैं कि जिस तप में स्वयं को भी कष्ट दिया जाता है और दूसरे को भी कष्ट दिया जाता है, वह निकृष्ट है । गीता ऐसे तप को तामस कहती है ।
बुद्ध अपने श्रावकों को चौथे प्रकार के तप के सम्बन्ध में उपदेश देते हैं और मध्यममार्ग के सिद्धान्त को आधार पर ऐसे ही तप को श्रेष्ठ बताते हैं, जिनमें न तो स्वपीड़न है, न पर-पीड़न । १. महानारायणोपनिषद्, २११२ २. गीता, ६।१६-१७-तुलना कीजिए-सूत्रकृतांग १।८२५ ३. मज्झिमनिकाय कन्दरकसुत्त, पृ० २०७-२१०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org