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________________ १०९ सम्यक् तप तथा योग-माग गोता में तप का वर्गीकरण-वैदिक साधना में तप का सर्वांग वर्गीकरण गीता में प्रतिपादित है । गीता में तप का दोहरा वर्गीकरण है। एक तप के स्वरूप का वर्गीकरण है तो दूसरा तप की उपादेयता एवं शुद्धता का। प्रथम स्वरूप की दृष्टि से गीताकार तप के तीन प्रकार बताते है -(१) शारीरिक, (२) वाचिक और (३) मानसिक । १. शारीरिक तप-गीताकार की दृष्टि में शारीरिक तप हैं-१. देव, द्विज, गुरुजनों और ज्ञानीजनों का पूजन (सत्कार एवं सेवा), २. पवित्रता (शरीर की पवित्रता एवं आचरण की पवित्रता), ३. सरलता (अकपट), ४. ब्रह्मचर्य और ५. अहिंसा का पालन । २. वाचिक-वाचिक तप के अन्तर्गत क्रोध जाग्रत नहीं करने वाला शान्तिप्रद, प्रिय एवं हितकारक यथार्थ भाषण, स्वाध्याय एवं अध्ययन ये तीन प्रकार आते हैं। ३. मानसिक तप-मन की प्रसन्नता, शान्त भाव, मौन, मनोनिग्रह और भाव संशुद्धि । तप की शुद्धता एवं नैतिक जीवन में उसकी उपादेयता की दृष्टि से तप के तीन स्तर या विभाग गीता में वर्णित हैं-१. सात्विक तप, २. राजस तप और ३. तामस तप । गीताकार कहता है कि उपर्युक्त तीनों प्रकार का तप श्रद्धापूर्वक, फल की आकांक्षा से रहित एवं निष्काम भाव से किया जाता है तब वह सात्विक तप कहा जात है । लेकिन जो तप सत्कार, मान-प्रतिष्ठा अथवा दिखावे के लिए किया जाता है तो वह राजस तप कहा जाता है। ___ इसी प्रकार जिस तप में मूढ़तापूर्वक अपने को भी कष्ट दिया जाता है और दूसरे को भी कष्ट दिया जाता और दूसरे का अनिष्ट करने के उद्देश्य से किया जाता है, वह तामस तप कहा जाता है। वर्गीकरण की दृष्टि से गीता और जैन विचारणा में प्रमुख अन्तर यह है कि गीता अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य एवं इन्द्रियनिग्रह, आर्जव आदि को भी तप की कोटि में रखती है, जब कि जैन विचारणा उन पर पाँच महाव्रतों एवं दस यतिधर्मों के सन्दर्भ में विचार करती है । इसी प्रकार गीता में जैन-विचारणा के बाह्य तपों पर विशेष विचार नहीं किया गया है । जैन-विचारणा के आभ्यन्तर तपों पर गीता में तप के रूप में नहीं, वरन् अलग से विचार किया गया है। केवल स्वाध्याय पर तप के रूप में विचार किया गया है। ध्यान और कायोत्सर्ग का योग के रूप में, वैयावृत्य का लोक-संग्रह के रूप १. गीता, १७।१४-१६ २. वही, १७।१७-१९ ३. तुलना कीजिये-सूत्रकृतांग, १।८।२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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