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________________ ११४ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवशनों का तुलनात्मक अध्ययन से पृथक नहीं माना गया है । जैन-परम्परा में धारणा, ध्यान और समाधि तीनों ध्यान में ही समाविष्ठ हैं । शुक्लध्यान की अवस्थाएँ समाधि के तुल्य हैं । समाधि के दो विभाग किये गए हैं-१. संप्रज्ञात-समाधि और २. असंप्रज्ञात-समाधि । संप्रज्ञात समाधि का अन्तर्भाव शुक्लध्यान के प्रथम दो प्रकार पृथक्त्ववितर्क सविचार और एकत्ववितर्क अविचार में और असंप्रज्ञात-समाधि का अन्तर्भाव शुक्ल-ध्यान के अन्तिम दो प्रकार सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती और समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति में हो जाता है।' ___ इस प्रकार अष्टांग-योग में प्राणायाम को छोड़कर शेष सभी का विवेचन जैनआगमों में उपलब्ध है। यही नहीं, परवर्ती जैनाचार्यों ने प्राणायाम का विवेचन भी किया है। आचार्य हरिभद्र ने तो पंचांग योग का विवेचन भी किया है, जिसमें योग के निम्न पाँच अंग बताये हैं:-१. अध्यात्म, २. भावना, ३. ध्यान, ४. समता और ५. वृत्तिसंक्षय । आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टिसमुच्चय, योग-बिन्दु और योगविशिका; आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव तथा आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र की रचना कर जैन परम्परा में योग-विद्या का विकास किया है। तप का सामान्य स्वरूप एक मूल्याकन-तप शब्द अनेक अर्थों में भारतीय आचार दर्शन में प्रयुक्त हुआ है और जब तक उसकी सीमाएँ निर्धारित नहीं कर लीजाती, उसका मूल्यांकन करना कठिन है । 'तप' शब्द एक अर्थ में त्याग-भावना को व्यक्त करता है । त्याग चाहे वह वैयक्तिक स्वार्थ एवं हितों का हो, चाहे वैयक्तिक सुखोपलब्धियों का हो, तप कहा जा सकता है । सम्भवतः यह तप की विस्तृत परिभाषा होगी, लेकिन यह तप के निषेधात्मक पक्ष को ही प्रस्तुत करती है । यहाँ तप, संयम, इन्द्रिय-निग्रह और देह-दण्डन बन कर रह जाता है । तप मात्र त्यागना ही नहीं है, उपलब्ध करना भी है । तप का केवल विसर्जनात्मक मूल्य मानना भ्रम होगा। भारतीय आचार-दर्शनों ने जहाँ तप के विसर्जनात्मक मूल्यों की गुण-गाथा गायी है, वहीं उसके सृजनात्मक मूल्य को भी स्वीकार किया है। वैदिक परम्परा में तप को लोक-कल्याण का विधान करने वाला कहा गया है । गीता की लोक-संग्रह की और जैन परम्परा की वैया वृत्य या संघसेवा की अवधारणाएँ तप के विधायक अर्थात् लोक-कल्याणकारी पक्ष को ही तो अभिव्यक्त करती हैं । बौद्ध परम्परा जब "बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' का उद्घोष देती है तब वह भी तप के विधायक मूल्य का ही विधान करती है। सृजनात्मक पक्ष में तप आत्मोपलब्धि ही है, लेकिन यहां स्व-आत्मन् इतना व्यापक होता है कि उसमें स्व या पर का भेद ही नहीं टिक पाता है और इसीलिए एक तपस्वी का आत्म-कल्याण और लोक कल्याण परस्पर विरोधी नहीं होकर एक रूप होते हैं । एक तपस्वी के आत्मकल्याण में लोक कल्याण समाविष्ट रहता है और उसका लोक-कल्याण आत्म-कल्याण ही होता है। १. विस्तृत एवं सप्रमाण तुलना के लिए देखिए-जैनागमों में अष्टांग-योग । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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