________________
सम्यक् तप तथा योग-मार्ग
आहार लेना यह काल-ऊनोदरी तप है। ४. भिक्षा-प्राप्ति के लिए या आहार के लिए किसी शर्त (अभिग्रह) का निश्चय कर लेना, यह भाव-ऊनोदरीतप है । संक्षेप में ऊनोदरी तप वह है जिसमें किसी विशेष समय एवं स्थान पर, विशेष प्रकार से उपलब्ध आहार को अपनी आहार की मात्रा से कम मात्रा में ग्रहण किया जाता है । मूलाचार के अनुसार ऊनोदरी तप की आवश्यकता निद्रा एवं इन्द्रियों के संयम के लिए तथा तप एवं षट् आवश्यकों के पालन के लिए है।'
३. रस-परित्याग-भोजन में दूध, दही, घृत, तैल, मिष्ठान्न आदि सबका या उनमें से किसी एक का ग्रहण न करना रस-परित्याग तप है । रस-परित्याग स्वाद-जय है । नैतिक जीवन की साधना के लिए स्वाद-जय आवश्यक है । महात्मा गांधी ने ग्यारह व्रतों का विधान किया, उसमें अस्वाद भी एक व्रत है। रस-परित्याग का तात्पर्य यह है कि साधक स्वाद के लिए नहीं, वरन् शरीर-निर्वाह अथवा साधना के लिए आहार करता है।
४. भिक्षाचर्या-भिक्षा-विषयक विभिन्न विधि-नियमों का पालन करते हुए भिक्षान्न पर जीवन यापन करना भिक्षाचर्या तप है। इसे वृत्तिपरिसंख्यान भी कहा गया है। इसका बहुत कुछ सम्बन्ध भिक्षुक जीवन से है। भिक्षा के सम्बन्ध में पूर्व निश्चय कर लेना और तदनुकूल ही भिक्षा ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान है । इसे अभिग्रह तप भी कहा गया है।
५. कायक्लेश-वीरासन, गोदुहासन आदि विभिन्न आसन करना, शीत या उष्णता सहन करने का अभ्यास करना कायक्लेश तप है। कायक्लेश तप चार प्रकार का है१. आसन, २. आतापना--सूर्य की रश्मियों का ताप लेना, शीत को सहन करना एवं अल्पवस्त्र अथवा निर्वस्त्र रहना । ३. विभूषा का त्याग, ४. परिकर्म-शरीर की साज सज्जा का त्याग।
६. संलोनता-संलीनता चार प्रकार की है-१. इन्द्रिय संलीनता-इन्द्रियों के विषयों से बचना, २. कषाय-संलीनता- क्रोध, मान, माया और लोभ से बचना, ३. योग संलीनता-मन, वाणी और शरीर को प्रवृत्तियों से बचना, ४. विविक्त शयनासनएकांत स्थान पर सोना-बैठना । सामान्य रूप से यह माना गया है कि कषाय एवं रागद्वेष के बाह्य निमित्तों से बचने के लिये साधक को श्मशान, शून्यागार और वन के एकान्त स्थानों में रहना चाहिए । आभ्यन्तर तप के भेद
आभ्यन्तर तप को सामान्य जनता तप के रूप में नहीं जानती है, फिर भी उसमें
१. मुलाचार, ५।१५३
२. उत्तराध्ययन, ३०।२९-३६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org