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________________ १०६ जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन तप का एक महत्त्वपूर्ण और उच्च पक्ष निहित है । बाह्य तप स्थूल हैं, जबकि अन्तरंग तप सूक्ष्म हैं | आभ्यन्तर तप के भी छह भेद हैं । १. प्रायश्चित - अपने शुभ आचरण के प्रति ग्लानि प्रकट करना, उसका पश्चात्ताप करना, आलोचना करना, उसे वरिष्ठ गुरुजन के समक्ष प्रकट कर उसके लिए योग्य दण्ड की याचना कर, उनके द्वारा दिये गये दण्ड को स्वीकार करना, प्रायश्चित्त तप है । प्रायश्चित के अभाव में सदाचरण सम्भव नहीं है, क्योंकि गलती या दोष होना सामान्य मानव प्रकृति हैं । लेकिन यदि उसका निराकरण नहीं किया जाता तो उस गलती का सुधार सम्भव नहीं । प्रायश्चित्त दस प्रकार का है. ---- १. आलोचना गलती या असदाचरण के लिए पश्चात्ताप करना । २. प्रतिक्रमण - चारित्रिक पतन से पुनः लौट जाना । अपनी गलती को सुधार लेना । ३. तदुभयः - आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों को स्वीकार करना । ४. विवेक गलती या असदाचरण को असदाचरण के रूप में जान लेना । ५. कायोत्सर्ग— प्रायश्चित्त स्वरूप कायोत्सर्ग करना अथवा असदाचरण का परित्याग करना । ६. तपस्या — अपराध या गलती के होने पर आत्मशुद्धि के निमित्त उपवास आदि तप स्वीकार करना । - ७. छेद – मुनि - जीवन में दीक्षापर्याय का कम कर देना छेद है अर्थात् अपराधी भिक्षु की श्रमण जीवन की वरीयता को कम करना । ८. मूल - पूर्व के श्रमण जीवन या दीक्षा पर्याय को समाप्त कर पुनः दीक्षा देना अथवा पुनः नये सिरे से श्रमण जीवन का प्रारम्भ करना । ९. परिहार — अपराधी श्रमण को श्रमण संस्था से बहिष्कृत करना । १०. श्रद्धान - मिथ्या दृष्टिकोण के उत्पन्न हो जाने पर उसका परित्याग कर सम्यक् दर्शन को पुनः प्राप्त करना । २. विनय - प्रायश्चित बिना विनय के सम्भव नहीं है । विनयशील ही आत्मशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त ग्रहण करता है । विनय का वास्तविक अर्थ वरिष्ठ एवं गुरुजनों का सम्मान करते हुए तथा उनकी आज्ञाओं का पालन करते हुए अनुशासित जीवन जीना है । विनय के सात भेद हैं - १. ज्ञान विनय, २. दर्शन विनय, ३. चारित्र - विनय, ४. मनोविनय, ५. वचन - विनय, ६. काय - विनय और ७. लोकोपचार विनय । शिष्टाचार के रूप में किये गये बाह्य उपचार को लोकोपचार विनय कहा जाता है । ३. वैयावृत्य - वैयावृत्य का अर्थ सेवा-शुश्रूषा करना है । भिक्षु संघ में दस प्रकार के साधकों की सेवा करना भिक्षु का कर्तव्य है — १. आचार्य, २. उपाध्याय, ३. तपस्वी, १. तत्त्वार्थसूत्र, ९।२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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