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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
ने आचार के अन्तर्गत निम्नलिखित विषय सम्मिलित किये हैं :- १. संस्कार, २. वेदपाठी ब्रह्मचारियों के चारित्रिक नियम, ३. विवाह ( पति-पत्नी के कर्तव्य ), ४. चार वर्णों एवं वर्णशंकरों के कर्तव्य, ५. ब्राह्मण गृहपति के कर्तव्य, ६. विद्यार्थी जीवन की समाप्ति पर पालनीय नियम, ७. भोजन के नियम, ८. धार्मिक पवित्रता, ९. श्राद्ध, १०. गणपति पूजा, ११. गृहशान्ति के नियम, १२. राजा के कर्तव्य आदि । यद्यपि सदाचार के उपर्युक्त विवेचन से ऐसा लगता है कि सदाचार का सम्बन्ध नैतिकता या साधनापरक आचार से न होकर लोक व्यवहार (लोक - रूढ़ि ) या बाह्याचार विधिनिषेधों से अधिक है । जब कि जैन परम्परा के सम्यक् चारित्र का सम्बन्ध साधनात्मक एवं नैतिक जीवन से है । जैनधर्म लोक व्यवहार की उपेक्षा नहीं करता है फिर भी उसकी अपनी मर्यादाएँ हैं।
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(१) उसके अनुसार वही लोक व्यवहार पालनीय है जिसके कारण सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र ( गृहीत व्रत, नियम आदि ) में कोई दोष नहीं लगता हो । अतः निर्दोष लोक व्यवहार ही पालनीय है. सदोष नहीं ।
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(२) दूसरे यदि कोई आचार ( बाह्याचार ) निर्दोष है किन्तु लोक व्यवहार के विरुद्ध है तो उसका आचरण नहीं करना चाहिये ( यदपि शुद्धं तदपि लोकविरुद्धं न समाचरेत् ) किन्तु इसका विलोम सही नहीं है अर्थात् सदोष आचार लोकमान्य होने पर भी आचरणीय नहीं हैं ।
उपसंहार
सामान्यतया जैन, बुद्ध और गीता के आचारदर्शनों में सदाचार का तात्पर्य राग-द्वेष, तृष्णा या आसक्ति का उच्छेद में इन्हें ग्रन्थि या हृदयग्रन्थि कहा गया है । ग्रन्थि का अर्थ का कार्य करती है, चूँकि ये तत्त्व व्यक्ति को संसार से बाँधते हैं और परमसत्ता से पृथक् रखते हैं इसीलिये इन्हें ग्रन्थि कहा गया है । इस गाँठ का खोलना ही साधना हैं, चारित्र है या शील है । सच्चा निर्ग्रन्थ वही हैं जो इस ग्रन्थी का मोचन कर देता है | आचार के समग्र विधि - निषेध इसी के लिये हैं ।
सम्यक्चारित्र, शील एवं रहा है । प्राचीन साहित्य गाँठ होता है, गाँठ बाँधने
वस्तुतः सम्यक् चारित्र या शील का अर्थ काम, क्रोध, लोभ, छल-कपट आदि अशुभ प्रवृत्तियों से दूर रहना है । तीनों ही आचारदर्शन साधक को इनसे बचने का निर्देश देते हैं । जैनपरम्परा के अनुसार व्यक्ति जितना क्रोध, मान, माया ( कपट) और लोभ की वृत्तियों का शमन एवं विलयन करेगा उतना ही वह साधना या सच्चरित्रता के क्षेत्र में आगे बढ़ेगा । गीता कहती है जब व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ आदि आसुरी प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर अहिंसा, क्षमा आदि दैवी सद्गुणों का सम्पादन करेगा तो वह अपने को २. वही, पृ० ७४-७५
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