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सम्यक्चारित्र (शील)
तीन प्रकार का होता है-विधि, प्रतिषेध और नियम । आचारों का मूल 'समय' (सिद्धांत) में होता है । 'समय' से उत्पन्न होने के कारण वे सामयाचरिक कहलाते हैं। अभ्युदय और निःश्रेयस के हेतु अपूर्व नामक आत्मा के गुण को धर्म कहते है। वैदिक परम्परा का यह सामयाचारिक शब्द जैन परम्परा के समाचारी ( समयाचारी ) और सामयिक के अधिक निकट है। आचारांग में 'समय' शब्द समता के अर्थ में और सूत्रकृतांग में 'सिद्धांत' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैन परम्परा में समता से युक्त आचार को 'सामायिक' और सिद्धान्त (शास्त्र) से निसृत आचार नियमों को ‘समाचारी' कहा गया है । गीता भी शास्त्र विधान के अनुसार आचरण का निर्देश कर सामयाचरिक या समाचारी के पालन की धारणा को पुष्ट करती है।
शिष्टचार-शिष्ट आचार शिष्टाचार कहा जाता है। शिष्ट शब्द को व्याख्या करते हुए वशिष्ठधर्म सूत्र में कहा है कि 'जो स्वार्थमय कामनाओं से रहित है, वह शिष्ट है (शिष्टः पुनरकामात्मा) इस आधार पर शिष्टाचार का अर्थ होगा-निष्काम भाव से किया जाने वाला आचार शिष्टाचार है अथवा निःस्वार्थ व्यक्ति का आचरण शिष्टाचार है । ऐसा आचार धर्म का कारणभूत होने से प्रमाणभूत माना गया है । इस प्रकर यहाँ शिष्टाचार का अर्थ, सामान्यतया शिष्टाचार से हम जो अर्थ ग्रहण करते हैं, उससे भिन्न है। शिष्टाचार निःस्वार्थ या निष्काम कर्म है। निष्काम कर्म या सेवा की अवधारणा गीता में स्वीकृत है ही और उसे जैन तथा बौद्ध परम्पराओं ने भी पूरी तरह मान्य किया है।
सदाचार-मनु के अनुसार ब्रह्मावर्त में निवास करने वाले चारों वर्गों का जो परम्परागत आचार है वह सदाचार है।3 सदाचार के तीन भेद हैं-१-देशाचार २-जात्याचार और ३–कुलाचार । विभिन्न प्रदेशों में परम्परागत रूप से चले आते आचार नियम 'देशाचार' कहे जाते हैं। प्रत्येक देश में विभिन्न जातियों के भी अपनेअपने विशिष्ट आचार नियम होते हैं, ये 'जात्याचार' कहे जाते हैं। प्रत्येक जाति के विभिन्न कुलों में भी आचारगत भिन्नताएँ होती हैं—प्रत्येक कुल की अपनी आचारपरम्पराएँ होती हैं, जिन्हें 'कुलाचार' कहा जाता है। देशाचार, कुलाचार और जत्याचार श्रुति और स्मृतियों से प्रतिपादित आचार नियमों के अतिरिक्त होते हैं । सामान्यतया हिन्दू धर्म शास्त्रकारों ने इसके पालन की अनुशंसा की है। यही नहीं, कुछ स्मृतिकारों के द्वारा तो ऐसे आचार नियम श्रुति, स्मृति आदि के विरुद्ध होने पर पालनीय कहे गये हैं। बृहस्पति का तो कहना है-बहुजन और चिरकालमानित देश, जाति और कुल के आचार ( श्रुति विरुद्ध होने पर भी ) पालनीय हैं, अन्यथा प्रजा में क्षोभ उत्पन्न होता है और राज्य की शक्ति और कोष क्षीण हो जाता है। याज्ञवल्क्य १. आपस्तम्ब धर्मसूत्र-भाष्य (हरदत्त) १।१।१-३ २. वशिष्ठ-धर्मसूत्र ११६ ३. मनुस्मृति २०१७--१८
४. हिन्दू धर्मकोश, पृ० ६२५
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