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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन प्रतीत होता है कि वह जैन-दर्शन को मान्यताओं के निकट ही है। यद्यपि दोनों परम्पराओं में नाम और वर्गीकरण की पद्धतियों का अन्तर है. लेकिन दोनों का आन्तरिक स्वरूप समान ही है। सम्यक् आचरण के लिए जो अपेक्षायें बौद्ध जीवन-पद्धति में की गयी है वे ही अपेक्षायें जैन आचार-दर्शन में भी स्वीकृत रही हैं । सम्यक् वाचा, सम्यक् कर्मान्त और सम्यक् आजीव के रूप में प्रतिपादित ये विचार जैन दर्शन में भी उपलब्ध हैं। अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों परम्पराएँ एक दूसरे के काफी निकट रही है। वैदिक परम्परा में शील या सदाचार
सम्यक् चारित्र को हिन्दू धर्मसूत्रों में शील, सामयाचारिक, सदाचार या शिष्टाचार कहा गया है । गीता की निष्काम कर्म और सेवा की अवधारणाओं को भी सम्यक्चारित्र का पर्यायवाची माना जा सकता है । गीता जिस निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन करती है, वस्तुतः वह मात्र कर्तव्य बुद्धि से एवं कर्ताभाव का अभिमान त्याग कर किया गया ऐसा कर्म है, जिसमें फलाकांक्षा नहीं होती। क्योंकि इस प्रकार का कर्म (आचरण) कर्म-बन्धन कारक नहीं होता है अतः इसे अकर्म भी कहते हैं । उस आचरण को जो बन्धन हेतु न बनकर मुक्ति का हेतु होता है, जैन परम्परा में सम्यक्चारित्र और गीता में निष्काम कर्म या अकर्म कहा गया है। गीता के अनुसार निष्काम कर्म या कर्मयोग के अन्तर्गत दैवीय गुणों अर्थात् अहिंसा, आर्जव, स्वाध्याय, दान, संयम, निर्लोभता, शौच आदि सद्गुणों का सम्पादन, स्वधर्म अर्थात् अपने वर्ण और आश्रम के कर्तव्यों का पालन और लोकसंग्रह (लोक-कल्याणकारी कार्यों का सम्पादन) आता है। इसके अतिरिक्त भगवद्भक्ति एवं अतिथि सेवा भी उसकी चारित्रिक साधना का एक अंग है ।
शोल-मनुस्मृति में शील, साधुजनों का आचरण (सदाचरण) और मन की प्रसन्नता (इच्छा, आकांक्षा आदि मानसिक विक्षोभों से रहित मन की प्रशान्त अवस्था) को धर्म का मूल बताया गया है ।' वैदिक आचार्य गोविन्दराज ने शील की व्याख्या रागद्वेष के परित्याग के रूप में की है ( शीलं रागद्वेषपरित्याग इत्याह)। हारीत के अनुसार ब्रह्मण्यता, देवपितृभक्तिता, सौम्यता, अपरोपतापिता, अनसूयता, मृदुता, अपारुष्य, मैत्रता, प्रियवादिता, कृतज्ञता, शरण्यता, कारुण्य और प्रशन्तता-ये तेरह प्रकार का गुण समूह शील है।
सामयाचारिक-आपस्तम्ब धर्मसूत्र के भाष्य में सामयाचारिक शब्द की व्याख्या निन्न प्रकार की गई है-आध्यात्मिक व्यवस्था को 'समय' (धर्मज्ञसमयः) कहते हैं वह १. मनुस्मृति २।६ २. (अ) मनुस्मृति टीका २१६ (ब) हिन्दू धर्मकोश, पृ० ६३१ ३. वही
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