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________________ सम्यक्चारित्र (शील) ९१ नहीं होता । ४. शीलवान सदैव ही अप्रमत्त चेतनावाला होता है और इसलिए उसके जीवन का अन्त भी जाग्रत चेतना की अवस्था में होता है । ५. शील के पालन से सुगति या स्वर्ग की प्राप्ति है । अष्टांग साधनापथ और शील- बुद्ध के अष्टांग साधना पथ में सम्यक् वाचा, सम्यक् कर्मान्त और सम्यक् आजीव ये तीन शील -स्कन्ध हैं । यद्यपि मज्झिन निकाय और अभिधर्मको व्याख्या के अनुसार शील- स्कन्ध में उपर्युक्त तीनों अंगों का ही समावेश किया गया है लेकिन यदि हम शील को न केवल दैहिक वरन् मानसिक भी मानते हैं तो हमें समाधि-स्कन्ध में से सम्यकव्यायाम को और प्रज्ञा-स्कन्ध में से सम्यक् संकल्प को ही शील स्कन्ध में समाहित करना पड़ेगा । क्योंकि संकल्प आचरण का चैतसिक आधार है और व्यायाम उसको वृद्धि का प्रयत्न । अतः उन्हें शील स्कन्ध में ही लेना चाहिए । यदि हम शील- स्कन्ध के तीनों अंग तथा समाधि-स्कन्ध के सम्यक् व्यायाम और प्रज्ञा-स्कन्ध के सम्यक् संकल्प को लेकर बौद्ध दर्शन में शील के स्वरूप को समझने का प्रयत्न करें तो उसका चित्र इस प्रकार से होगा - सम्यक् वाचा सम्यक् कर्मान्त सम्यक् आजीव सम्यक् व्यायाम ३. कामेषुमिथ्याचार विरमण ४. अब्रह्मचर्य विरमण (अ) भिक्षु नियमों के अनुसार भिक्षा प्राप्त करना (ब) गृहस्थ नियमों के अनुसार आजीविका अर्जित करना १. अनुत्पन्न अकुशल के उत्पन्न नहीं होने देने के लिए प्रयत्न २. उत्पन्न अकुशल के प्रहाण के लिए प्रयत्न ३. अनुत्पन्न कुशल के उत्पादन के लिए प्रयत्न ४. उत्पन्न कुशल के वैपुल्य के लिए प्रयत्न १. नैष्कर्म्य संकल्प २. अव्यापाद संकल्प ३. अविहिंसा संकल्प यदि तुलनात्मक दृष्टि से बौद्ध दर्शन के शील के स्वरूप पर विचार करें तो ऐसा १. देखिए - अर्ली मोनास्टिक बुद्धिज्म, पृ० १४२-४३ सम्यक् संकल्प १. मृषावाद विरमण २. पिशुनवचन विरमण Jain Education International ३. पुरुषवचन विरमण ४. व्यर्थ संलाप विरमण १. अदत्तादान विरमण २. प्राणातिपात विरमण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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