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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
आधार पर हुआ है कि जीवन और सुख सभी को प्रिय है तथा मृत्यु और दुःख सभी को अप्रिय है, अतः हिंसा नहीं करना चाहिए और न किसी को पीड़ा ही पहुंचाना चाहिए ।
बौद्ध दर्शन में भी नैतिक आदर्श के रूप में निर्वाण का निर्वचन दार्शनिक या अनुभवातीत विधि के आधार पर हुआ है, और अहिंसा व करुणा के सिद्धान्त मनोवैज्ञानिक आधारों पर प्ररूपित हैं । विनयपिटक से तो ऐसा लगता है कि बुद्ध नैतिक नियमों के निर्माण में मानवमन की मनोवैज्ञानिक परख के साथ-साथ सामाजिक अनुमोदन और अननुमोदन को भी ध्यान में रखते हैं । विनयपिटक के अनेक सन्दर्भ इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि बौद्ध दर्शन में आचारदर्शन की विविध बिधियों का उपयोग हुआ है । विस्तारभय से यहाँ उनकी चर्चा अपेक्षित नहीं है । विधियों का यह प्रश्न नैतिक नियमों की सापेक्षता के साथ जुड़ा हुआ है जिसपर अगले अध्याय में विचार किया गया है ।
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