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________________ भारतीय आचारदर्शन में ज्ञान की विधाएं ५३ किया, उन्होंने आचारदर्शन की विधि को दार्शनिक या चिन्तनपरक माना है। इन विचारकों में हेगल, ग्रीन आदि अध्यात्मवादी विचारक प्रमुख हैं। आचारदर्शन की उपर्युक्त अध्ययनविधियों को अन्य प्रकार से भी वर्गीकृत किया जा सकता है। आचारदर्शन की अनुभवमूलक विधियाँ वैज्ञानिक विधियों का ही रूप हैं और ऐन्द्रिक ज्ञान के अनुभवमूलक आधारों पर खड़ी हुई हैं। इसके विपरीत दार्शनिक विधि चिन्तनपरक या बौद्धिक है। प्रथम वर्ग यथार्थ पर अधिक बल देता है, दूसरा वर्ग आदर्श पर। प्रथम वर्ग में आनेवाली सभी विधियाँ सापेक्ष विधियाँ भी कही जा सकती हैं, क्योंकि इनमें नैतिक प्रत्यय एवं नियम एक सापेक्ष तथ्य ही सिद्ध होते हैं। दूसरे वर्ग में आनेवाली बौद्धिक विधि या दार्शनिक विधि एक निरपेक्ष विधि है, क्योंकि उसमें नैतिक नियम निरपेक्ष माने जाते हैं। इस प्रकार आचारदर्शन की अध्ययन विधियों को अनुभवमूलक और अनुभवातीत, आगमनात्मक और निगमनात्मक, यथार्थमूलक और आदर्शमूलक अथवा सापेक्ष और निरपेक्ष किसी भी रूप में देखा जाय, उनका मूल मन्तव्य वही होता है। तुलनात्मक दृष्टि से अनुभवमूलक यथार्थवादी सापेक्ष विधियों को भारतीय चिन्तन की व्यवहारदृष्टि के समकक्ष मान सकते हैं। अनुभवातीत बुद्धिमूलक आदर्शवादी निरपेक्ष विधि को निश्चयनय या परमार्थदृष्टि के तुल्य माना जा सकता है। २१. भारतीय आचारदर्शनों में विविध विधियों का समन्वय - वस्तुतः नैतिक जीवन का उद्देश्य यथार्थ से आदर्श की ओर बढ़ना है और इस रूप में उसके लिए अनुभवमूलक और अनुभवातीत दोनों ही विधियाँ आवश्यक हैं। जो विचारक इनमें से किसी एक विधि को ही नैतिक दर्शन की एकमात्र विधि स्वीकार करते हैं, वे नैतिक दर्शन के समग्र स्वरूप की व्याख्या करने में असमर्थ हैं। यही कारण है कि कुछ प्रबुद्ध विचारकों ने नैतिक दर्शन के लिए न केवल दोनों ही विधियों का प्रयोग आवश्यक समझा, वरन् उनमें समीक्षात्मक प्रणाली के रूप में एक समन्वय भी खोजा। जहाँ नैतिक आदर्श की व्याख्या का प्रश्न है, वहाँ हमें आनुभविक तथ्यों से ऊपर उठकर विचार करना होगा। वहीं दूसरी ओर नैतिक नियमों और आचरण के विधि-विधानों की व्याख्या करते समय अनुभवमूलक आधारों का आश्रय लेना होगा। जहाँ तक जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों की बात है, उन्होंने आचारदर्शन के अध्ययन के लिए अथवा नैतिक जीवन की व्याख्या के लिए किसी एक विधि का आश्रय लिया हो, ऐसा नहीं लगता। वे यथावसर सभी पद्धतियों को अपनाते हैं। जैन विचारकों ने नैतिक आदर्श मोक्ष का प्रतिपादन दार्शनिक विधि के आधार पर किया और तात्त्विक सत्ता की स्वरूपदशा के रूप में उसकी व्याख्या की। दूसरी ओर नैतिक नियमों के प्रतिपादन में उन्होंने मनोवैज्ञानिक पद्धति का अनुसरण किया। जैन आचारदर्शन के केन्द्रीय सिद्धान्त अहिंसा का प्रतिपादन इसी मनोवैज्ञानिक For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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