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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
१. जैविक विधि-इस अध्ययनविधि को माननेवाले विचारकों में हर्बर्ट स्पेन्सर प्रमुख हैं । ये विचारक नैतिक नियमों को सामाजिक नियमों पर, सामाजिक नियमों को मनोवैज्ञानिक नियमों पर, मनोवैज्ञानिक नियमों को जैविक नियमों पर और जैविक नियमों को भौतिक नियमों पर अधिष्ठित मानते हैं। इस प्रकार इनके अनुसार नैतिक नियम अन्ततोगत्वा जैविक एवं भौतिक नियमों से ही निर्गमित होते हैं। यह विधि आचारदर्शन को प्रकृत एवं विधायक विज्ञान के रूप में देखती है और उसकी नियामक एवं आदर्शमूलक प्रकृति को अपनी दृष्टि से ओझल कर देती है। इस प्रकार यह विधि आचारदर्शन के निर्धान्त अध्ययन के लिए एकांगी सिद्ध होती है।
२. ऐतिहासिक विधि-इस अध्ययन विधि को माननेवाले विचारकों में विकासवादी दार्शनिक एवं कार्ल मार्क्स आते हैं। इनके अनुसार नैतिक प्रत्ययों एवं नियमों का विकास आदि असंस्कृत रीतिरिवाजों से हुआ है। नैतिकता सामाजिक उत्क्रांति का परिणाम है और नीतिशास्त्र का कार्य नैतिक प्रत्ययों की उत्पत्ति और विकास की व्याख्या प्रस्तुत करना हैं। ये विचारक भी नीतिशास्त्र को समाज का प्रकृत इतिहास बनाकर उसकी नियामक या आदर्शमूलक प्रकृति पर ध्यान नहीं देते हैं । नीतिशास्त्र का कार्य नैतिक नियमों की उत्पत्ति की व्याख्या करना नहीं, वरन् नैतिक आदर्श को प्रस्तुत करना भी है। ___३. मनोवैज्ञानिक विधि-इस विधि के द्वारा नैतिक प्रत्ययों की व्याख्या करनेवाले विचारकों का एक वर्ग जिसमें कार्नेप, एयर, रसल, स्टीवेन्सन आदि तार्किक भाववादी विचारक आते हैं, शुभ एवं उचित के नैतिक प्रत्ययों को मनोवैज्ञानिक एवं सांवेगिक अभिव्यक्तियों के रूप में देखता है। यह वर्ग नैतिकता के आदर्शमूलक स्वरूप को नष्ट कर नैतिक सन्देहवाद को जन्म देता है। मनोवैज्ञानिक विधि को महत्त्व देनेवाला दूसरा वर्ग नैतिक तथ्यों को चेतनागत मानता है और इसलिए यह कहता है कि नैतिक प्रत्ययों के सम्यक् अध्ययन के लिए मनोवैज्ञानिक पद्धति का अनुसरण करना चाहिए, तथापि इन विचारकों के अनुसार नैतिक प्रत्यय मूलतः आदर्शमूलक हैं । ये विचारक नैतिकता की आदर्शमूलक प्रकृति को अस्वीकार नहीं करते हैं, मात्र मानव के परममंगल का निर्धारण करने में उसकी मनोवैज्ञानिक प्रकृति का ध्यान रखना आवश्यक मानते हैं। इनके अनुसार मानव की मनोवैज्ञानिक प्रकृति ही उसके परममंगल का निर्देश कर सकती है, अतः उसको दृष्टि में रखते हुए ही नीतिशास्त्र को नैतिक आदर्श का निर्धारण करना चाहिए। ह्यूम, बेन्थम, मिल प्रभृति सुखवादी विचारक इस पद्धति का अनुसरण करते हैं। - उपर्युक्त अनुभवमूलक विधियों के अतिरिक्त कुछ विचारकों ने आचारदर्शन के सम्यक् अध्ययन के लिए दार्शनिक विधि की स्थापना की है।
दार्शनिक विधि-जिन विचारकों ने आचारदर्शन को तत्त्वमीमांसा पर आधा. रित माना और नैतिक आदर्श को मानवचेतना की तात्त्विक सत्ता से अनुमित
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