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भारतीय आचारदर्शन में ज्ञान की विधाएं
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लघु स्वरूप न वृत्ति नु ग्रह्यं व्रत अभिमान । ग्रहे नहीं परमार्थ ने लेवा लौकिक मान । अथवा निश्चयनय ग्रहे मात्र शब्द नी मांय । लोपे सद्व्यवहार ने साधनरहित थाय ॥ निश्चयवाणी सांमळी साधन तजवां नोय । निश्चय राखी लक्ष मां साधन करवां सोय ॥ नय निश्चय एकांत थी आंमा नथी कहेल । एकांते व्यवहार नहीं बन्ने सपि रहेल ॥
-आत्म सिद्धिशास्त्र, २८, २९, १३१, १३२. यदि आन्तरिक वृत्ति पवित्र नहीं हुई है और मात्र अपने को धार्मिक सिद्ध करने के लिए बाह्य व्रत-नियमों का पालन करता है तो ऐसा साधक परमार्थ को प्राप्त नहीं कर सकता, उसका आचरण मात्र लौकिक-प्रदर्शन के निमित्त होता है। दूसरे, कोई निश्चयदृष्टि को ही महत्त्व देकर आचरण की बाह्य क्रियाओं ( सद्व्यवहार ) का परित्याग करता है तो वह भी साधना से रहित है। आत्मा असंग, अबद्ध और नित्य सिद्ध है ऐसी तात्त्विक निश्चयवाणी को सुनकर नैतिक विधि-नियमों का छोड़ना उचित नहीं है, वरन् परमार्थदृष्टि को आदर्श के रूप में स्वीकार करके सदाचरण करते रहना चाहिए। ऐकान्तिक दृष्टिकोण में नैतिक प्रत्ययों की समग्र व्याख्या सम्भव नहीं है। यथार्थ नैतिक जीवन में एकान्त निश्चयदृष्टि अलग-अलग रहकर कार्य नहीं करती, वरन् एक साथ कार्य करती है। नैतिकता के आन्तरिक पक्ष और बाह्य पक्ष मिलकर ही समग्र नैतिकता का निर्माण करते हैं। वे दो भिन्न-भिन्न पहलू अवश्य हैं, लेकिन अलग-अलग तथ्य नहीं हैं। उन्हें अलग-अलग देखा जा सकता है, लेकिन उन्हें अलग-अलग किया नहीं जा सकता। सिक्के के दोनों बाजुओं को अलग-अलग देख सकते हैं, लेकिन उन्हें अलग-अलग किया नहीं जा सकता। जहाँ नैतिक साध्य के लिए परमार्थदृष्टि या निश्चयनय आवश्यक है, वहीं नैतिक साधना के लिए व्यवहारदृष्टि भी आवश्यक है। दोनों के समवेतरूप में ही नैतिक पूर्णता की उपलब्धि होती है। कहा है
निश्चय राखी लक्ष मां, पाळे जे व्यवहार ।
ते नर मोक्ष पामशे सन्देह नहीं लगार ॥ २०. पाश्चात्य आचारदर्शन की अध्ययन विधियाँ और जैन दर्शन
पाश्चात्य नीतिवेत्ताओं ने आचारदर्शन की विभिन्न समस्याओं के सम्यक् अध्ययन के लिए जिन विधियों का आश्रय लिया है, उन्हें दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-(१) अनुभवमूलक विधियाँ और (२) दार्शनिक विधियाँ । पाश्चात्य आचारदर्शन में अनुभवमूलक विधियाँ तीन हैं
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