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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन आचरण के आन्तरिक एवं बाह्य पक्षों में कोई अन्तर नहीं होता । विशुद्ध मनोभावों की अवस्था में अनैतिक आचरण सम्भव ही नहीं होता । इतना ही नहीं, जैन आचारदर्शन के अनुसार नैतिक पूर्णता की प्राप्ति के पाश्चात् भी व्यक्ति को नैतिकता के बाह्य नियमों एवं विधि-विधानों का पालन यथावत करते रहना चाहिए। आवश्यकनियुक्ति एवं आत्मसिद्धिशास्त्र में कहा गया है कि यदि शिष्य नैतिक पूर्णता को प्राप्त कर लेता है और आचार्य उस पूर्णता को प्राप्त न कर पाया हो, तो भी संघ की मर्यादा के लिए शिष्य को गुरु की यथावत सेवा करनी चाहिए । इस प्रकार जैन आचारदर्शन यह स्पष्ट कर देता है कि आन्तरिक दृष्टि से नैतिक पूर्णता को प्राप्तकर लेने पर भी बाह्य (समाजसापेक्ष) नैतिक नियमों का परिपालन आवश्यक है। इस प्रकार वह निश्चयदृष्टि पर बल देते हुए भी व्यवहार का लोप स्वीकार नहीं करता। इतना ही नहीं, वह यह भी कहता है कि परमार्थ की उपलब्धि हो जाने पर भी व्यवहारधर्म, संघ-मर्यादाओं एवं सामाजिक नैतिक नियमों का परि- . पालन आवश्यक है।
गीता और बौद्ध आचारदर्शन भी वैयक्तिक दृष्टि से आचरण के आन्तरिक पक्ष पर यथेष्ट बल देते हुए भी लोकव्यवहार का आचरण आवश्यक मानते हैं। गीता स्पष्ट रूप से कहती है कि 'जिस प्रकार सामान्य जन लोकव्यवहार का आचरण करता है, विद्वान् भी अनासक्त होकर उसी प्रकार लोकव्यवहार का आचरण करता रहे।'२ गीता में प्रतिपादित स्वधर्म, वर्णधर्म और लोकसंग्रह के सिद्धान्त इसी का समर्थन करते हैं । बौद्ध आचारदर्शन में भी यह माना गया है कि अर्हतावस्था को प्राप्त कर लेने पर भी संघीय जीवन के बाह्य नियमों का यथावत पालन करते रहना चाहिए । इस प्रकार जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों में नैतिक जीवन के आन्तरिक स्वरूप या निश्चय-आचार पर वैयक्तिक दृष्टि से पर्याप्त महत्त्व देते हुए भी व्यावहारिक दृष्टि से आचरण के बाह्य पक्षों को उपेक्षणीय नहीं माना गया है। वैयक्तिक दृष्टि से आचरण का आन्तरिक पक्ष महत्त्वपूर्ण है, लेकिन सामाजिक दृष्टि से आचरण का बाह्य पक्ष भी महत्त्वपूर्ण है । सामान्यतया दोनों में कोई तुलना भी नहीं की जा सकती, क्योंकि निश्चयलक्षी आचार का महत्त्व व्यक्तिगत और समाजगत ऐसे दो आधारों पर है । दोनों में से किसी एक को छोड़ा भी नहीं जा सकता, क्योंकि व्यक्ति अपने आपमें व्यक्ति और समाज दोनों ही है। जैन दृष्टि के अनुसार नैतिकता के नैश्चयिक और व्यावहारिक पहलुओं की सबलता अपने-अपने स्थान में है । इसलिए दोनों का पालन अपेक्षित है। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए महात्मा गांधी के आध्यात्मिक गुरुतुल्य सत्पुरुष श्री राजचन्दभाई लिखते हैं कि---
१. (अ) आत्मसिद्धिशास्त्र, १९. (ब) आवश्यकनियुक्तिभाष्य, १२३. २. गीता, ३२५. ३. विनयपिटक, चूलवग्ग, पृ० ४-५.
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