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________________ भारतीय आचारदर्शन में ज्ञान की विधाएं ४५ का विचार केवल निश्चयदृष्टि से ही नहीं किया जा सकता । ऐसा मूल्यांकन आंशिक एवं अपूर्ण ही होगा। नैतिकता के समुचित मूल्यांकन के लिए नैतिकता के बाह्य सामाजिक पक्ष पर भी विचार करना जरूरी है, लेकिन यह सीमा-क्षेत्र आचारलक्षी निश्चयदृष्टि का नहीं, व्यवहारदृष्टि का है। आचार के क्षेत्र में व्यवहारदृष्टि नैतिकता के क्षेत्र में व्यवहारदृष्टि आचरण के बाह्य ( समाजसापेक्ष ) पक्ष पर बल देती है। उसमें आचरण की एकरूपता नहीं, वरन् विविधता होती है। पं० सुखलालजी के शब्दों में, "व्यावहारिक आचार ऐसा एकरूप नहीं ( है )। निश्चयआचार की भूमिका से निष्पन्न ऐसे भिन्न-भिन्न देश-काल-जाति-स्वभाव-रुचि अदि. के अनुसार कभी-कभी परस्परविरुद्ध दिखाई देनेवाले आचार व्यवहारिक आचार की कोटि में गिने जाते हैं।"१ व्यावहारिक आचार देश, काल एवं व्यक्ति-सापेक्ष होता है । उसका स्वरूप परिवर्तनशील होता है। वह तो उन परिधियों के समान है जो समकेन्द्रक होते हुए भी देशकालरूपी त्रिज्या की विभिन्नता के कारण अलग-अलग होती हैं । आचारदर्शन के क्षेत्र में व्यवहारदृष्टि कर्ता के प्रयोजन को गौण कर कर्मपरिणामों पर लोकहित की दृष्टि से विचार करती है ।२ देशकालगत आचरण के नियमों का बाह्य स्वरूप निश्चित करना व्यावहारिक दृष्टि का कार्य है। वह देश, काल एवं वैयक्तिक परिस्थितियों के आधार पर नैतिक आचरण के बाह्य स्वरूप का निर्धारण करती है । जहाँ तक आचरण के शुभत्व और अशुभत्व के मूल्यांकन का प्रश्न है, आचरण के आन्तरिक पक्ष या कर्ता के प्रयोजन के आधार पर उसके शुभत्व का मूल्यांकन नैतिकता की निश्चयदृष्टि करती है, जबकि आचरण के बाह्यपक्ष या परिणाम के आधार पर उसके शुभत्व का निर्णय नैतिकता की व्यवहारदृष्टि करती है। जैन विचारणा के अनुसार कर्मों के इस द्विविध मूल्यांकन में ही उसका समग्र मूल्यांकन सम्भव होता है। यद्यपि यह सम्भव है कि कोई कर्म निश्चयदृष्टि से शुभ या नैतिक होते हुए भी व्यावहारदृष्टि से अशुद्ध या अनैतिक हो सकता है। उदाहरणार्थ, मुनि का वह व्यवहार जो शुद्ध मनोभाव और आगमिक आज्ञाओं के अनुकूल होते हुए भी यदि लोक निन्दा या लोकघृणा का कारण है, तो वह निश्चयदृष्टि से शुद्ध होते हुए भी व्यवहारदृष्टि से अशुद्ध ही माना जायेगा । इसी प्रकार, कोई कर्म व्यवहारदृष्टि से शुद्ध या नैतिक प्रतीत होते हुए भी निश्चयदृष्टि से अशुद्ध या अनैतिक हो सकता है; जैसे, फलाकांक्षा से किया हुआ तप अथवा यश-प्रतिष्ठा की इच्छा से किया हुआ परोपकार । भारतीय आचारदर्शन इस तथ्य को स्वीकार करता है कि नैतिक आचरण में मात्र कर्ता का विशुद्ध प्रयोजन ही पर्याप्त नहीं है, उसमें लोकव्यवहार की दृष्टि भी आवश्यक है।। १. दर्शन और चिन्तन, भाग २, पृ० ४९९. २. अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड ४, पृ० २०५६. ३. वही, ९०७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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