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________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन ___व्यावहारिक नैतिकता का सम्बन्ध आचरण के उन सामाजिक नियमों एवं विधि-विधानों से है जिनका समाज की इकाई के रूप में व्यक्ति के द्वारा पालन किया जाना चाहिए। समाजदृष्टि ही व्यावहारिक नैतिकता में शुभाशुभत्व का आधार है। व्यावहारिक नैतिकता कहती है कि कार्य चाहे कर्ता के प्रयोजन की दृष्टि से शुद्ध हो, लेकिन यदि वह लोक विरुद्ध है तो उसका आचरण नहीं करना चाहिए ( यद्यपि शुद्धं तदपि लोकविरुद्धं न समाचरेत् )। वस्तुतः नैतिकता की व्यवहारदृष्टि आचरण को सामाजिक सन्दर्भ में परखती है। यह आचरण के शुभाशुभत्व के मापन की समाज-सापेक्ष पद्धति है, जो व्यक्ति के सम्मुख सामाजिक नैतिकता को प्रस्तुत करती है । सामाजिक नैतिकता का पालन वैयक्तिक साधना की दृष्टि से इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना समाजव्यवस्था या संघव्यवस्था की दृष्टि से । यही कारण है कि वैयक्तिक साधना की परिपूर्णता के पश्चात् भी जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन समानरूप से इसके परिपालन को आवश्यक मानते हैं। ____ आचरण के समग्र विधि-विधान एवं विविधताएं व्यावहारिक नैतिकता के विषय हैं । व्यावहारिक नैतिकता क्रिया है । अतः आचरण कैसे करना चाहिए, इसका निर्धारण व्यावहारिक नैतिकता का विषय है। गृहस्थ एवं संन्यास-जीवन के सारे विधि-विधान जो व्यक्ति और समाज एवं व्यक्ति और उसके परिवेश के मध्य सांग संतुलन को बनाये रखने के लिए प्रस्तुत किये जाते हैं, वे व्यावहारिक नैतिकता के क्षेत्र में आते हैं । व्यावहारिक नैतिकता, नैतिकता की सापेक्षिक प्रणाली है । वह हमारे सामने सापेक्ष आचारविधि प्रस्तुत करती है। १५. नैतिकता के क्षेत्र में व्यवहारदष्टि के आधार नैश्चयिक नैतिकता एक निरपेक्ष तथ्य है, और व्यावहारिक नैतिकता सापेक्ष है। व्यवहारदृष्टि से नैतिक आचरण देश, काल, वैयक्तिक स्वभाव, शक्ति और रुचि पर निर्भर करता है। इनकी भिन्नता के आधार पर व्यावहारिक आचार में भी भिन्नता सम्भव है । प्रश्न उपस्थित होता है कि इस बात का निश्चय कैसे किया जाय कि किस देश, काल एवं परिस्थिति में कैसा आचरण उचित है। जैन विचारकों ने इस प्रश्न पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया है। वे कहते हैं कि निश्चयदृष्टि से तो संकल्प ( अध्यवसाय ) की शुभता ही नैतिकता का आधार है। लेकिन व्यवहार के क्षेत्र में एवं सामाजिक जीवन में आचरण का मूल्यांकन करने एवं आचरण के नियमों का निर्धारण करने के पाँच आधार माने गये हैं(१) आगम, (२) श्रुत, (३) आज्ञा, (४) धारणा और (५) जीत । इन्हीं पांच आधारों पर व्यवहार के भी पाँच भेद होते हैं, जो निम्नानुसार हैं १. आगम-व्यवहार-किस देश, काल एवं वैयक्तिक परिस्थिति में किस प्रकार का आचरण करना चाहिए, इसका निर्देश आगम ग्रन्थों में मिलता है। अतः आगमों में वर्णित नियमों के अनुसार आचरण करना आगम-व्यवहार है । १. स्थानांग २।५; अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड ६, पृ० ९०६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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