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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
कह सकते हैं कि उस दृष्टि से साध्य भी आत्मा है, साधक भी आत्मा है और ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप साधनामार्ग भी आत्मा है । तीसरे, आचरण का दिखाई देनेवाला बाह्य रूप उसके लिए महत्त्वपूर्ण नहीं होता । आचरण के विधि-विधानों से पारमार्थिक या निश्चय - आचार का कोई सम्बन्ध नहीं है । उसका सम्बन्ध तो मात्र कर्ता की आन्तरिक अवस्थाओं से होता है ।
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संक्षेप में नैतिकता की निश्चयदृष्टि का सम्बन्ध वैयक्तिक नैतिकता से है । वह नैतिक मूल्यांकन के लिए इस बात का विचार नहीं करती है कि कर्म का समाज पर क्या परिणाम हुआ । वह नैतिक मूल्यों का अंकन सामाजिक दृष्टि से नहीं, वरन् वैयक्तिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से करती है । वह समाज सापेक्ष न होकर व्यक्ति-सापेक्ष होती है । आचार्य अमृतचन्द्र समयसारटीका में इसी बात को स्पष्ट करते हैं कि निश्चयनय आत्माश्रित है और व्यवहारनय पराश्रित ( समाज सापेक्ष ) है । जैन विचारणा के अनुसार व्यक्ति की आन्तरिक वासनाओं का सम्बन्ध 'नैश्चयिक नैतिकता' से है । व्यक्ति में वासनाओं एवं तृष्णा की अग्नि जिस मात्रा में शान्त होती है, उसी मात्रा में वह निश्चय आचार की दृष्टि से विकास की दिशा में बढ़ा हुआ माना जाता है । नैश्चयिक नैतिकता क्रिया या आचरण की अवस्था नहीं, वरन् अनुभूति या साक्षात्कार की अवस्था है । इसमें शुभाशुभत्व का माप इस आधार पर नहीं होता कि व्यक्ति क्या करता है, वरन् इस आधार पर होता है कि वह अपने स्वस्वरूप को कहाँ तक पहचान पाया है और कहाँ तक उसके निकट हो पाया है । आत्मोपलब्धि या परमार्थ का साक्षात्कार ही नैतिक जीवन का परमादर्श है और इस आदर्श के सन्दर्भ में आन्तरिक वृत्तियों का आकलन करना ही पारमार्थिक या नैश्चयिक नैतिकता का प्रमुख कार्य है । व्यक्ति के आन्तरिक विचलन और आन्तरिक समत्व का आकलन निश्चयदृ ष्टि का क्षेत्र है । निश्चयदृष्टि नैतिक आचरण का मूल्यांकन उसके आन्तरिक पक्ष, प्रयोजन एवं उसकी लक्ष्योन्मुखता के आधार पर करती है । वह नैतिकता के अध्ययन में कर्म के संकल्पात्मक पक्ष को ही अधिक महत्त्व देती है ।
लेकिन नैतिकता मात्र संकल्प ही नहीं । नैतिक जीवन के लिए संकल्प आवश्यक है, परन्तु ऐसा संकल्प जिसमें क्रियान्वयन का प्रयास न हो तो वह सच्चा संकल्प नहीं होता है । इसीलिए यह माना गया कि नैतिक जीवन में संकल्प को मात्र संकल्प नहीं रहना चाहिए, वरन् कार्यरूप में परिणत भी होना चाहिए और संकल्प की कार्यरूप परिणति हमारे सामने नैतिकता का दूसरा पक्ष प्रस्तुत करती है । मात्र संकल्प तो व्यक्ति तक सीमित रह सकता है, उसका समाज पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वह समाज-निरपेक्ष हो सकता है। लेकिन जब संकल्प कार्य में परिणत किया जाता है, तब वह मात्र वैयक्तिक नहीं रहता, वरन् सामाजिक बन जाता है । अतः नैतिकता
१. समयसारटीका, २७२.
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