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भारतीद आचारदर्शन में ज्ञान की विधाएं
आचार सदैव एकरूप ही होता है। निश्चयदृष्टि से जो शुभ है वह सदैव शुभ है और जो अशुभ है वह सदैव अशुभ है। देश, काल एवं वैयक्तिक दृष्टि से भी उसमें अन्तर नहीं आता। वैचारिक या मनोजन्य अध्यवसायों का शुभत्व और अशुभत्व देशकालगत भेदों से नहीं बदलता, उसमें अपवाद के लिए कोई गुंजाइश नहीं । व्यावहारिक नैतिकता में या आचरण के बाह्य भेदों में भी उसकी एकरूपता बनी रह सकती है। पं० सुखलालजी के शब्दों में, "निश्चय-आचार की ( एक ही) भूमिका पर वर्तमान एक ही व्यक्ति अनेकविध व्यावहारिक आचारों में से गुजरता है।"१ इतना ही नहीं, इसके विपरीत आचरण की बाह्य एकरूपता में भी निश्चयदृष्टि से आचार की भिन्नता हो सकती है। वस्तुतः आचारदर्शन के क्षेत्र में निश्चयआचार वह केन्द्र है, जिसके आधार से व्यावहारिक आचार के वृत्त बनते हैं। जिस प्रकार एक केन्द्र से खींचे गये अनेक वृत्त भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हुए भी अपने केन्द्र की दृष्टि से एक ही माने जाते हैं, उनमें परिधिगत विभिन्नता होते हुए भी केन्द्रगत एकता होती है। जैन दृष्टि के अनुसार, “निश्चय-आचार समग्र बाह्य आचरण का केन्द्र होता है।"२ बाह्य आचरण का शुभत्व और अशुभत्व इसी आभ्यन्तरिक केन्द्र पर निर्भर है। शुद्ध निश्चय जो कि तत्त्वमीमांसा की एक विधि है, जब नैतिकता के क्षेत्र में प्रयुक्त की जाती है, तो वह दो बातें प्रस्तुत करती है--
१. नैतिक आदर्श या साध्य का शुद्ध स्वरूप । २. नैतिक साध्य का नैतिक साधना से अभेद ।
नैतिक साध्य वह स्थिति है जहाँ पहुँचने पर नैतिकता समाप्त हो जाती है, क्योंकि उसके आगे कुछ प्राप्तव्य नहीं है, कुछ चाहना नहीं है और इसलिए कोई नैतिकता नहीं है । क्योंकि नैतिकता के लिए 'चाहिए' या 'आदर्श' आवश्यक है, अतः नैतिक साध्य उस स्थान पर स्थित है जहाँ तत्त्वमीमांसा और आचारदर्शन मिलते हैं । अतः नैतिक साध्य की व्याख्या विशुद्ध पारमार्थिक दृष्टि से ही सम्भव है। दूसरी ओर नैतिक साध्य पूर्णता की वह स्थिति है कि जब हम उस साध्य की भूमिका पर स्थित होकर विचार करते हैं तो वहाँ साध्य, साधक और साधनापथ का अभेद हो जाता है। क्योंकि जब आदर्श उपलब्ध हो जाता है, तब आदर्श आदर्श नहीं रह जाता
और साधक साधक नहीं रह जाता, न साधनापथ साधनापथ ही रह जाता है। नैतिक पूर्णता की अवस्था में साधक, साध्य और साधनापथ का विभेद टिक नहीं पाता। यदि साधक है तो उसका साध्य होगा और यदि साध्य है तो फिर नैतिक पूर्णता कैसी ? साध्य, साधक और साधना सापेक्ष पद हैं । यदि एक है तो दूसरा है । साध्य के अभाव में न साधक साधक होता है और न साधनापथ साधनापथ । उस अवस्था में तो मात्र विशुद्ध सत्ता है । यदि पूर्वावस्था की दृष्टि से उपचाररूप में कहना ही हो तो १. दर्शन और चिन्तन, भाग २, पृ० ४९९. २. बाह्यस्य अभ्यन्तरत्वम् । अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड ४, पृ० २०५६.
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