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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
सत्ता ( Being ) है, कोई नैतिक विचारणा सम्भव ही नहीं । जैन विचारणा भी नहीं कहती कि हमारा नैतिक आदर्श परिवर्तनशीलता ( Becoming ) से अपरिवर्तनशीलता ( Nonbecoming ) की अवस्था को प्राप्त करना है । क्योंकि सत् यदि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य गुणयुक्त है, तो फिर मोक्ष - अवस्था में यह भी सम्भव नहीं है । जैन विचारणा मोक्षावस्था में भी मात्र ज्ञानदृष्टि से आत्मा का परिणामी - पन स्वीकार करती है । जैन विचारणा के अनुसार पर्याय ( Modes ) दो प्रकार के होते हैं - एक स्वभावपर्याय ( Homogenous changes ) और दूसरा विभावपर्याय या विरूप परिवर्तन ( Heterogenous changes ) । जैन नैतिकता का आदर्श मात्र आत्मा को विभावपर्याय की अवस्था से स्वभावपर्याय अवस्था में लाना है ।
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इस प्रकार जैन नैतिकता सत् के द्रव्यार्थिक पक्ष को अपने विवेचन का विषय न बनाकर सत् के पर्यायार्थिक पक्ष को ही विवेचन का विषय बनाती है, जिसमें स्वभाव पर्यायावस्था को प्राप्त करना ही उसका नैतिक आदर्श है । 'स्वभावपर्याय तत्त्व के निजगुणों के कारण होती है एवं अन्य तत्त्वों से निरपेक्ष होती है ।" इसके विपरीत अन्य तत्त्व से सापेक्ष विभावपर्याय होती है । अतः नैतिकता के प्रत्यय की दृष्टि से आत्मा का स्वभावदशा में रहना नैतिकता का निरपेक्ष स्वरूप है । इसी को आचारलक्षी निश्चयनय कहा जा सकता है, क्योंकि जैन दृष्टि से सारे नैतिक आचरण का सार या साध्य यही है जिसे किसी अन्य का साधन नहीं माना जा सकता । यही स्वलक्ष्य मूल्य ( End in itself ) है, शेष सारा आचरण इसी के लिए है, अत: साधनरूप है, सापेक्ष है और इस कारण मात्र व्यावहारिक है ।
$ १४. आचारदर्शन के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि का अर्थ निश्चयनय का अर्थ
जैन आचारदर्शन का नैतिक आदर्श मोक्ष है । अतएव जो आचार सीधे रूप में मोक्षलक्षी है, वह निश्चय - आचार है । आचरण का वह पक्ष जिसका सीधा सम्बन्ध बन्धन और मुक्ति से है, निश्चय - आचार है । वस्तुतः बन्धन और मुक्ति का सीधा कारण आचरण का बाह्य स्वरूप नहीं होता, वरन् व्यक्ति की आन्तरिक मनोवृत्तियाँ ही होती हैं । अतः वे आन्तरिक मनोवृत्तियाँ जो बन्धन और मुक्ति का सीधा कारण बनती हैं, आचारदर्शन के क्षेत्र में निश्चयनय ( परमार्थदृष्टि ) के सीमाक्षेत्र में आती हैं । राग, द्वेष और मोह की त्रिपुटी का सम्बन्ध निश्चयआचार से है । 'नैतिक निर्णयों की वह दृष्टि जो बाह्य आचरण या क्रियाकलापों से निरपेक्ष मात्र कर्ता के प्रयोजन को लक्ष्य में रखकर शुभाशुभता का विचार करती है, निश्चयदृष्टि है ।' २ आचारदर्शन के क्षेत्र में भी निश्चय
१. नियमसार, २८.
२. अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड ४, पृ० २०५६.
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