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भारतीय आचारदर्शन में ज्ञान की विधाएं
साधक अपनी आन्तरिक सत्-असत् वृत्तियों का व उनकी तीव्रता और मन्दता के तारतम्य का सीधा साक्षात् कर सकता है । संक्षेप में नैश्चयिक आचार का साक्षाकार व्यक्ति के लिए सम्भव है, जबकि नैश्चयिक तत्त्व का साक्षात्कार प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है । अपनी सत् एवं असत् आन्तरिक वृत्तियों का हमें सीधा साक्षात्कार होता है । वे हमारी आन्तरिक अनुभूति के विषय हैं । तत्त्व के निश्चयस्वरूप का सीधा प्रत्यक्षीकरण सम्भव नहीं होता, वह तो मात्र बुद्धि की खोज है । तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में पर्यायों से भिन्न शुद्धतत्त्व की उपलब्धि साधारण रूप में सम्भव नहीं होती, जबकि आचार के क्षेत्र में आचरण से भिन्न आन्तरिक वृत्तियों का अनुभव होता है ।
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तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि आत्मा के बन्धन, मुक्ति, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, आदि प्रत्ययों को महत्त्व नहीं देती । वे उसके लिए गौण हैं। क्योंकि वे आत्मा की पर्यायदशा को ही सूचित करते हैं । आचारलक्षी निश्चयदृष्टि में तो बन्धन और मुक्ति या आत्मा का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व ऐसी मौलिक धारणाएँ हैं जिन्हें वह स्वीकार करके ही आगे बढ़ती है । यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चयनय में दो भेद स्वीकार किये । आचार्य कुन्दकुन्द तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाली निश्चयनय ( परमार्थदृष्टि ) को शुद्ध निश्चयनय कहते हैं और आचारलक्षी निश्चय दृष्टि को अशुद्ध निश्चयनय कहते हैं । कुछ आचार्यों ने निश्चयनय के द्रव्य (fro निश्चयनय और पर्यायार्थिक निश्चयनय ऐसे दो विभाग किये हैं । बौद्धों के स्वतन्त्र माध्यमिक सम्प्रदाय में भी परमार्थ के दो विभाग किये गये हैं-- ' पर्याय - परमार्थ और अपर्यायपरमार्थ । तुलनात्मक दृष्टि से हम देखते हैं कि अपर्यायपरमार्थ को सर्वप्रपंचवर्जित कहा गया है जो जैनदर्शन के शुद्धनिश्चयनय का ही समानार्थक है और पर्यायपरमार्थ अशुद्ध निश्चयनय या पर्यायार्थिक निश्चयनय का समानार्थक है ।
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१३. द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों की दृष्टि से नैतिकता का विचार
इसी तथ्य को जैन विचारणा के अनुसार एक दूसरे प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है । जैनागमों में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो दृष्टिकोण या नय स्वीकार किये गये हैं । जैन दर्शन जड़ और चेतन, उभय परमतत्त्वों की दृष्टि से नित्यपरिणामवाद मानता है । सांख्यदर्शन केवल प्रकृतिपरिणामवाद मानता है । गीता में भी प्रकृतिपरिणामवाद माना गया है । सत् का एक पक्ष वह है जिसमें वह प्रति क्षण बदलता रहता है, जबकि दूसरा पक्ष वह है जो इन परिवर्तनों के पीछे है। लेकिन नैतिकता की समग्र विवेचना तो सत् के इस परिवर्तनशील पक्ष के लिए है । नैतिकता एक गत्यात्मकता है, एक प्रक्रिया है, एक होना है ( Becoming ), जो परिवर्तन की दशा में ही सम्भव है । उस अपरिवर्तनीय पक्ष की दृष्टि से जो मात्र
१. मध्यमार्थसंग्रह, उद्धृत — दी सेण्ट्रल फिलासफी आफ बुद्धिज्म, पृ० २४८.
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