________________
४०
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन ६ १२. तत्त्वज्ञान और आचारदर्शन के क्षेत्र में व्यवहारनय
और निश्चयनय का अन्तर - जैन परम्परा में व्यवहार और निश्चय नामक दो नयों या दृष्टियों का प्रतिपादन किया गया है। वे तत्त्वज्ञान और आचारदर्शन दोनों क्षेत्रों पर लागू होती हैं, फिर भी आचारदर्शन और तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि का प्रतिपादन भिन्न-भिन्न अर्थों में हुआ है। पं० सुखलालजी इस अन्तर को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि जैन परम्परा में जो निश्चय और व्यवहार रूप से दो दृष्टियाँ मानी गयी हैं, वे तत्त्वज्ञान और आचार दोनों क्षेत्रों में लागू की गयी हैं।' इतर सभी भारतीय दर्शनों की तरह जैन दर्शन में भी तत्त्वज्ञान और आचार, दोनों का समावेश है। निश्चयनय और व्यवहारनय का प्रयोग तत्त्वज्ञान और आचार दोनों में होता है, लेकिन सामान्यतः शास्त्राभ्यासी इस अन्तर को 'जान नहीं पाता । तात्त्विक निश्चयदृष्टि और आचारविषयक निश्चयदृष्टि, दोनों एक नहीं हैं । यही बात उभयविषयक व्यवहारदृष्टि की है। निश्चयनय और व्यवहारनय ये दो शब्द भले ही समान हों, पर तत्त्वज्ञान और आचार के क्षेत्र में भिन्न-भिन्न अभिप्राय रखते हैं और विभिन्न परिणामों पर पहुँचाते हैं।
आचारगामी निश्चयदृष्टि या व्यवहारदृष्टि मुख्यतया मोक्षपुरुषार्थ की दृष्टि से विचार करती है, जबकि तत्त्वनिरूपक निश्चय और व्यवहार दृष्टि केवल जगत् के स्वरूप का विचार करती है। संक्षेप में तत्त्वनिरूपण की दृष्टि से 'क्या है' यह महत्त्वपूर्ण है और आचारनिरूपण में 'क्या होना चाहिए' यह महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः तत्त्वज्ञान की विधायक ( Positive ) एवं व्याख्यात्मक प्रकृति और आदर्श दर्शन की नियामक ( Normative ) एवं आदर्शमूलक प्रकृति ही इनमें यह अन्तर बना देती है। तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि यह बताती है कि सत्ता का मूल स्वरूप क्या है और व्यवहारदृष्टि यह बताती है कि सत्ता किस रूप में प्रतीत हो रही है, उसका इन्द्रियग्राह्य ( स्थूल ) स्वरूप क्या है ? और आचारदर्शन के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि कर्ता के प्रयोजन अथवा कर्म की आदर्शोन्मुखता के आधार पर उसकी शुभाशुभता का मूल्यांकन करती है । निश्चयनय में आचार का बाह्य पक्ष महत्त्वपूर्ण नहीं होता, वरन् उसका आन्तरिक पक्ष ही महत्त्वपूर्ण होता है। इसके विपरीत आचार के क्षेत्र में व्यवहारदृष्टि के अनुसार आचरण के बाह्य पक्ष पर अधिक विचार किया जाता है।
दूसरा महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयदृष्टिसम्मत तत्त्वों के स्वरूप का साधारण जिज्ञासुजन कभी भी साक्षात् नहीं कर पाते। हम तत्त्व का साक्षात्कार करनेवाले अनुभवी व्यक्ति के कथन पर श्रद्धा रखकर ही वैसा स्वरूप मानते हैं। लेकिन आचार के बारे में ऐसी बात नहीं है। कोई जागरूक १. दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृ० ५००.
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org