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भारतीय आचारदर्शन में ज्ञान की विधाएं भी कथन है कि बुद्ध द्वारा प्रतिपादित चारों आर्यसत्य लोकसंवृति या व्यवहार ही हैं।' वैदिक परम्परा में आचार्य गौडपाद ने भी परमतत्त्व को बन्धन और मुक्ति से निरपेक्ष माना है। उनके अनुसार तो जीव की सत्ता भी व्यावहारिक है। अतः उसका बन्धन और उसकी मुक्ति भी व्यावहारिक सत्य है ।
पाश्चात्य परम्परा में कांट ने भी नैतिकता को व्यावहारिक बुद्धि का विषय बताया है। कांट ने आचारदर्शन पर जो ग्रन्थ लिखा, उसका नाम ही 'व्यावहारिक बुद्धि की मीमांसा' है। इस प्रकार न केवल जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में; अपितु पाश्चात्य आचारदर्शन के प्रबुद्ध विचारक कांट के अनुसार भी नैतिकता व्यवहारदृष्टि का विषय है।
यद्यपि यह सत्य है कि समग्र नैतिक आचरण व्यवहारनय के क्षेत्र में ही आता है, तथापि जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में स्वीकृत नैतिक जीवन का साध्य निश्चयनय या परमार्थदृष्टि का ही विषय है। अतः केवल यह मानना कि नैतिकता के क्षेत्र में व्यवहारदृष्टि ही एकमात्र अध्ययनविधि हो सकती है, एकांगी धारणा ही होगी। नैतिक साध्य स्वलक्षण या स्वभावदशा का सूचक है और इस रूप में वह द्रव्यदृष्टि, निश्चयनय या परमार्थदृष्टि का ही विषय है । इस प्रकार आचारदर्शन के क्षेत्र में निश्चय और व्यवहार दोनों ही दृष्टिकोण अपेक्षित हैं। उसमें निश्चयदृष्टि का विषय नैतिक साध्य या आदर्श है और व्यवहारदृष्टि का विषय नैतिक आचरण या कर्म है। फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि आचारदर्शन के क्षेत्र में निश्चयनय का अर्थ तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में प्रयुक्त निश्चयनय से कुछ भिन्न है । 5 ११. तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयनय और व्यवहारनय का अर्थ
तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि सत् के उस स्वरूप का प्रतिपादन करती है जो सत् की त्रिकालाबाधित स्वभावदशा, उसका मूलस्वरूप और स्वलक्षण है, जो पर्याय या परिवर्तनों में भी सत्ता के सार के रूप में बना रहता है। 'निश्चयदृष्टि अभेदगामी सत्ता के शुद्धस्वरूप या स्वभावदशा की सूचक एवं बाह्य-निरपेक्ष परिणाम की व्याख्या करती है।'3
तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में व्यवहार दृष्टि सत्ता के उस पक्ष का प्रतिपादन करती है जिस रूप में वह प्रतीत होती है । व्यवहारदृष्टि भेदगामी है और सत् के आगन्तुक लक्षणों या विभावदशा की सूचक है। सत् के परिवर्तनशील पक्ष का प्रस्तुतीकरण व्यवहारनय का विषय है। व्यवहारनय देश और काल सापेक्ष है। व्यवहारदृष्टि के अनुसार आत्मा जन्म भी लेता है और मरता भी है, वह बन्धन में भी आता है और मुक्त भी होता है। १. माध्यमिक कारिका, ८।५-६; बौद्धदर्शनमीमांसा, पृ० २८८. २. देखिए-ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य अध्यास विवेचना-भामतीटीका सहित.
३. अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड ४, पृ० २०५६. Jain Education International For Private & Personal Use Only
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