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________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन पर निश्चयनय भी छूट जाता है, जैसे गुड़ का स्वाद लेते हुए गुड़ के स्वाद के बौद्धिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती। जब स्वभाव में अवस्थिति होती है, तब समग्र विकल्पात्मक ज्ञान विलुप्त हो जाता है। जिस प्रकार सामान्य जीवन में किसी रसानुभूति की अवस्था में विचार और विकल्प विलुप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार निर्वाण या नैतिक साध्य की उपलब्धि में भी समग्र विकल्पात्मक ज्ञान का विलय हो जाता है। फिर भी विकल्पात्मक ज्ञान की आवश्यकता तबतक बनी रहती है जबतक कि उस साध्य की उपलब्धि नहीं हो जाती । नैतिक साध्य की उपलब्धि तक व्यक्ति के लिए दृष्टिकोणों की आवश्यकता बनी रहती है। ___इस प्रकार स्पष्ट है कि आचारदर्शन में कर्मों के शुभत्व एवं अशुभत्व के विवेचन के लिए तथा नैतिक साध्य के बोध के लिए सभी दृष्टिकोण या अध्ययन विधियाँ आवश्यक हैं । फिर भी यह विचार अपेक्षित है कि नैतिक दर्शन में निश्चयनय और ध्यवहारनय, या परमार्थदृष्टि और व्यवहारदृष्टि में कौन सी उसके अध्ययन की प्रमुख विधि है। १०. क्या निश्चयनय या परमार्थदृष्टि नैतिक अध्ययन की विधि है ? जैन आचारदर्शन में शुद्ध निश्चयनय, अशुद्ध अनिश्चयनय और व्यवहारनय-ये तीन दृष्टिकोण मान्य हैं । इनमें से कौन सा दृष्टिकोण आचारदर्शन की अध्ययनविधि हो सकता है ? वस्तुतः आचरण का सारा क्षेत्र ही व्यवहार का क्षेत्र है । निश्चय या पारमार्थिक दृष्टि से तो सारी नैतिकता ही व्यावहारिक संकल्पना है। विशुद्ध पारमार्थिक या निश्चयदृष्टि से बन्धन और मुक्ति भी व्यावहारिक सत्य ही ठहरते हैं, क्योंकि बन्धन और मुक्ति दोनों ही पर्यायदृष्टि के विषय हैं। तत्त्व ( द्रव्य ) दृष्टि से तो आत्मा शुद्ध ही है। अतः आत्मा को बन्धन में मानकर उसकी मुक्ति के निमित्त किया जानेवाला नैतिक आचरण भी व्यवहार के क्षेत्र में ही सम्भव है । आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्टरूप से कहा है कि जीव कर्म से बद्ध है, यह व्यवहारनय का वचन है और जीव कर्म से अबद्ध है, यह शुद्ध निश्चयनय का कथन है। आत्मा का बन्धन और मुक्ति व्यवहारसत्य है, परमार्थदृष्टि से तो न बन्धन है और न मुक्ति है। आचार्य कहते हैं, "आत्मा का बन्धन और अबन्धन दोनों ही दृष्टिसापेक्ष हैं, नयपक्ष है, परमतत्त्व समयसार ( शुद्ध आत्मा ) 'पक्षातिक्रांत' है।"१ इस प्रकार जैन दृष्टिकोण से समस्त नैतिक आचरण व्यवहार के क्षेत्र में आता है । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र का समग्र साधनामार्ग व्यवहारनय का विषय है।२। न केवल जैन परम्परा में, वरन् बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में भी आचारदर्शन को व्यवहारदृष्टि का विषय माना गया है। बौद्ध विचारणा में नागार्जुन का १. समयसार, १४१-१४२. २. वही, ७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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