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________________ भारतीय आचारदर्शन में ज्ञान की विधाएं सत्ता या आत्मतत्त्व का साक्षात्कार होता है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं, "किसी अनार्य व्यक्ति को अनार्य भाषा के अभाव में अपनी बात समझाने में कोई भी आर्यजन सफल नहीं होता । उसे अपनी बात समझाने के लिए उसी की भाषा का अवलम्बन लेना होता है। इसी प्रकार व्यवहारदृष्टि के अभाव में व्यवहारजगत् में प्राणियों को परमार्थ का बोध नहीं कराया जा सकता।' ऐसे ही शब्दों में आचार्य नागार्जुन कहते हैं, "जिस प्रकार म्लेच्छ किसी अन्य की भाषा ग्रहण करने में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार यह जगत् भी लौकिक दृष्टि से अन्य दृष्टि को ग्रहण करने में समर्थ नहीं होता। उसे व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश नहीं दिया जा सकता और परमार्थ के ज्ञान के बिना निर्वाण प्राप्त नहीं किया जा सकता।"२ इस प्रकार कुन्दकुन्द और नागार्जुन दोनों ही निर्वाणप्राप्ति के लिए व्यावहारिक और पारमार्थिक दोनों ही दृष्टिकोणों की उपादेयता स्वीकार करते हैं। हिन्दू परम्परा में भी एक अन्य रूपक के द्वारा आचार्य कुन्दकुन्द और नागार्जुन के दृष्टिकोण का ही समर्थन किया गया है । गीताभाष्य में डा० राधाकृष्णन ने इसी दृष्टिकोण को स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं कि जिस प्रकार काँटे के द्वारा काँटा निकाला जाता है, उसी प्रकार व्यवहार से ऊपर उठने के लिए भी व्यवहारदृष्टि की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार काँटे के निकल जाने पर काँटा निकालनेवाले काँटे को फेंक दिया जाता है, उसी प्रकार परमार्थ का बोध हो जाने पर व्यवहारदृष्टि का भी परित्याग कर दिया जाता है । पाश्चात्य विचारक ड्रडले ने भी सत् ( Reality ) के ज्ञान के लिए आभास की उपादेयता को स्वीकार किया है।४ विस्तार-भय से उनके विस्तृत विचारों को प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है। "वास्तविकता यह है कि व्यवहारनय के निराकरण के लिए निश्चयनय का आलम्बन लिया जाता है, किन्तु निश्चयनय का आलम्बन भी कर्तव्य की इतिश्री नहीं है । उसके आश्रय से आत्मा के स्वरूप का बोध करके उसे छोड़ने पर तत्त्व का साक्षात्कार सम्भव है।"५ स्वभाव का बोध निश्चयनय से होता है और विभाव का बोध व्यवहारनय से । व्यवहारनय से विभाव-अवस्था को जानकर निश्चयनय से स्वभाव का बोध किया जाता है। स्वभाव का बोध हो जाने पर विभाव का परित्याग कर देना ही व्यवहार के द्वारा परमार्थ के बोध की उपादेयता है। जब निश्चयनय से स्वभाव का बोध हो जाता है तब साधना के द्वारा उस स्वभावदशा में अवस्थिति ही नैतिक जीवन का साध्य होता है। स्वभाव में अवस्थित होने पर स्वभाव का बौद्धिक ज्ञान भी अनावश्यक हो जाता है। स्वस्वरूप में स्थित हो जाने २. समयसार, ८. २. माध्यमिककारिका, २४।१०. ३. भगवद्गीता (रा०), पृ० ११४. ४. आभास और सत; पृ० ४८०. ५. आगमयुग का जैन दर्शन, पृ० २६८-६९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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