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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
और इसलिए सारा ही ज्ञान सापेक्ष होता है। जैन दर्शन में एक भी सूत्र और अर्थ ऐसा नहीं है जो नयशून्य ( दृष्टिकोणरहित ) हो।'
जैन दार्शनिकों ने ज्ञान की सापेक्षता को स्वीकार किया है और इसलिए उनका कहना है कि ज्ञान का प्रत्येक रूप, चाहे वह व्यावहारिक या लौकिक, अथवा नैश्चयिक या तात्त्विक, अपने-अपने दृष्टिकोणों के आधार पर सत्य ही होता है। उसमें किसी को भी असत्य नहीं कहा जा सकता। ६७. जैन दर्शन में ज्ञान की सत्यता का आधार
जैसा कि हमने देखा, जैन आचारदर्शन ज्ञान की सापेक्षिकता को स्वीकार करता है। सापेक्षिक ज्ञान की सत्यता स्व-अपेक्षा से ही होती है, पर-अपेक्षा से नहीं । प्रत्येक दृष्टिकोण के आधार पर अवतरित सत्य उसी दृष्टिकोण की अपेक्षा से ही सत्य होता है। आचार्य समन्तभद्र ने कहा है कि जो दृष्टिकोण या नय परस्पर एक-दूसरे का विरोध करते हैं, वे स्वपर-प्रणाशी दुर्नय कहे जाते हैं। इसके विपरीत जो नय एक-दूसरे के पूरक और सहयोगी हैं, वे स्व-परोपकारी सुनय कहे जाते हैं । अपेक्षा के अभाव में प्रत्येक दृष्टिकोण असत्य बन जाता है क्योंकि वह दूसरे का बाध करता है, जबकि सापेक्ष होकर प्रत्येक नय सत्य बन जाता है। ज्ञान की सत्यता और असत्यता अपेक्षा पर निर्भर मानी गयी है । वह जिस अपेक्षा के आधार पर निर्मित है उसी अपेक्षा की दृष्टि से सत्य होता है और अन्य अपेक्षाओं या दृष्टियों से वही असत्य हो जाता है। प्रत्येक दृष्टिकोण स्व-अपेक्षा से सत्य होता है और पर-अपेक्षा से असत्य । ६८. आचारदर्शन की अध्ययनविधियाँ
आचारदर्शन में निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि के रूप में दो अध्ययन विधियाँ स्वीकृत हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने एक और दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया है जिसे उन्होंने अशुद्ध निश्चयनय कहा है। वस्तुतः शुद्ध निश्चयनय द्रव्यार्थिक दृष्टि है। अतः वह चाहे नैतिक साध्य के स्वरूप का संकेत करती हो, लेकिन उसे आचारदर्शन की विधि नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसमें परिवर्तन एवं भेद को कोई स्थान नहीं, जबकि नैतिकता के लिए दोनों आवश्यक हैं। इस प्रकार आचारदर्शन के अध्ययन की दो ही दृष्टियाँ शेष रहती हैं जिन्हें हम आचारलक्षी निश्चयनय ( अशुद्ध निश्चयनय ) और व्यवहारनय कह सकते हैं । यद्यपि तात्त्विक निश्चयदृष्टि का भी अपना स्थान है, उसे नैतिक साध्य का स्वरूप बतानेवाली दृष्टि कहा जा सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि तात्त्विक निश्चयदृष्टि नैतिक साध्य को तथा आचारलक्षी निश्चयदृष्टि ( अशुद्ध निश्चयनय ) नैतिकता के आन्तरिक पक्ष को और व्यवहारदृष्टि नैतिकता के बाह्य स्वरूप को प्रकट करती है। इस प्रकार आचारदर्शन के अध्ययन की तीन विधियाँ हो जाती हैं-(१) तात्त्विक निश्चयदृष्ट, (२) आचारलक्षी निश्चयदृष्टि और (३) व्यवहारदृष्टि। १. विशेषावश्यकभाष्य, उद्धृत-नयवाद भूमिका, पृ० २.
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