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________________ भारतीय आचारदर्शन में ज्ञान की विधाएं ६९. आचारदर्शन के अध्ययन के विविध दृष्टिकोण ___ आचरण के क्षेत्र में कर्तव्य एवं अकर्तव्य की विवेचना सहज नहीं है। गीता का कथन है कि 'कर्म, अकर्म और विकर्म का विषय अत्यन्त गहन है। बड़े-बड़े विद्वान् भी यहाँ विमोहित हो जाते हैं।'१ सबसे पहले विवाद इस प्रश्न को लेकर है कि कर्मों की शुभाशुभता का निश्चय कर्ता के आन्तरिक अभिप्राय के आधार पर किया जाय या कर्ता के द्वारा आचरित कृत्य के आधार पर किया जाय ? यदि कर्ता के आन्तरिक अभिप्राय को ही कृत्यों की शुभाशुभता का मापक मान लिया जाय, तो भी यह प्रश्न उठता है कि कर्ता के अभिप्राय की शुभता या अशुभता का मापक तत्त्व क्या है ? क्या कर्ता का अभिप्राय निरपेक्ष शुभ है या किसी अन्य की अपेक्षा से शुभ है ? यदि कर्ता के अभिप्राय को शुभत्व प्रदान करनेवाला अन्य कोई तत्त्व है, तो वह क्या है ? इस प्रकार आचारदर्शन के क्षेत्र में की जानेवाली आचरण की गहन विवेचना सरल एवं निरपेक्ष नहीं रह जाती । जान ड्यूई भी लिखते हैं, "आचरण एक जटिल चीज है। इतनी जटिल कि बौद्धिक दृष्टि से उसे किसी एक सिद्धान्त में बाँधने के हर प्रयत्न व्यर्थ हुए हैं।"२ आचरण में मन, बुद्धि, विचार, अनुभूति, इच्छा, वासना, क्रिया आदि अनेक तथ्यों का सम्मिश्रण है। यह स्वयं में ही एक जटिलता है। जैन आचार्यों के अनुसार लोक-व्यवहार निरपेक्ष नहीं है। वे कहते हैं कि बिना सापेक्षिकता के लोक-व्यवहार सम्भव नहीं होता है। अतः आचारदर्शन, जो कि आचरण के मूल्यांकन का प्रयास करता है, निरपेक्षरूप से लोक-व्यवहार के बारे में कोई विचार नहीं कर सकता । जैनाचार्यों का सदैव यही उद्घोष रहा है कि जटिलता का विवेचन बिना अपेक्षा के करना सम्भव नहीं है, इस प्रकार आचरण की विवेचना बिना विविध दृष्टिकोणों के करना सम्भव नहीं है । आचारदर्शन का सम्बन्ध आचरण के विभिन्न पक्षों से है। इसलिए यह आवश्यक है कि उन विविध पक्षों को सम्यक् प्रकार से समझने के लिए विविध दृष्टिकोणों के आधार पर उनका विचार किया जाय । ___ आचारदर्शन के साध्य की दृष्टि से विचार किया जाय तो हम पाते हैं कि जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का साध्य निर्वाण है। इसे परमार्थ, परममूल्य और तात्त्विक सत्ता एवं पूर्णता भी कहा जा सकता है। उसके स्वरूप का निर्वचन भी एक जटिल समस्या है। भाषा, वाणी और तर्क उसे ग्रहण करने में अपूर्ण हैं। भाषा अस्ति और नारित की कोटियों से सीमित है, वाणी की अर्थ-व्यंजना भाषा पर १. गीता, ४१६-१७. २. नैतिक जीवन का सिद्धान्त, पृ० १८४. ३. अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड ४, पृ० १८५३. ४. वही. ५. देखिए-आचारांग १।५।६।१७१; तैतिरीयोपनिषद्, २।९; मुण्डकोपनिषद, ३।११८ उदान, ८।१, ३. Jain Educatio international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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