SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३ भारतीय आचारदर्शन में ज्ञान की विधाएं ( Modes ), कांट के प्रपंच ( Phenomenal ) और तत्त्व ( Noumerial ), हेगल के विपर्यय ( Illusion ) और निरपेक्ष ( Absolute ) तथा ब्रडले के आभास ( Appearance ) और सत् ( Reality ) किसी न किसी रूप में उसी व्यवहार और परमार्थ की धारणा को स्पष्ट करते हैं। भले ही इनमें नामों की भिन्नता हो, लेकिन उनके विचार इन्हीं दो दृष्टिकोणों की ओर संकेत करते हैं। ६६. जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में दृष्टिकोणों का विचार-भेद यद्यपि तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते हुए हमने बौद्ध, वैदिक एवं पाश्चात्य परम्परा के साथ जैन परम्परा के साम्य को देखा, तथापि यह स्मरण रखना चाहिए कि उनमें कुछ विचार-भेद भी हैं। प्रथम तो शंकर के प्रतिभासिक, चन्द्रकीर्ति की मिथ्यासंवृति और विज्ञानवाद के परिकल्पित दृष्टिकोणों के समान किसी दृष्टिकोण का प्रतिपादन जैन परम्परा में उपलब्ध नहीं है। इसी प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में प्रस्तुत अशुद्धनिश्चयनय का विचार, जिसे व्यवहार और परमार्थ की मध्यस्थिति का द्योतक माना जा सकता है, बौद्ध और वैदिक परम्परा में अनुपलब्ध है। इस सन्दर्भ में एक और महत्त्वपूर्ण अन्तर जैन और जैनेतर परम्पराओं में यह है कि बौद्ध शून्यवाद और विज्ञानवाद तथा शांकरवेदान्त में व्यवहारदृष्टि या लोकसंवृति को परमार्थ की अपेक्षा निम्नस्तरीय माना गया है और उससे उपलब्ध होनेवाले ज्ञान को भी वास्तविक रूप में सत्य नहीं माना गया है, जबकि जैन दर्शन के अनुसार व्यवहार और निश्चय अथवा पर्याय दृष्टि और द्रव्यदृष्टि स्वस्थानों की अपेक्षा से समस्तरीय मानी गयी है । वस्तुतः उनमें कोई तुलना करना ही अनुचित है, क्योंकि दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं। साथ ही जैन विचारणा के अनुसार व्यवहारनय और निश्चयनय दोनों ही सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं। जबकि शून्यवाद और शांकरवेदान्त के अनुसार लोकसंवृतिसत्य या व्यवहारदृष्टि ही सापेक्ष है, परमार्थदृष्टि को उनमें निरपेक्ष माना गया है। जैन विचारणा के अनुसार सभी ज्ञान सापेक्ष हैं, तत्त्व की स्वसत्ता चाहे निरपेक्ष हो, लेकिन उसका ज्ञान, चाहे वह व्यावहारिक ज्ञान हो या नैश्चयिक, सापेक्ष ही होता है। नयचक्र में कहा गया है कि वस्तुगत धर्म भले ही नय-विषयक हो या प्रमाण-विषयक, वे परस्पर सापेक्ष ही होते हैं। सापेक्षता ही तत्त्व है और निरपेक्षता अतत्त्व ।' यद्यपि हम नयचक्र के प्रणेता के इस विचार से सहमत नहीं हैं कि तत्त्व की सत्ता सापेक्ष है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो जैन दर्शन शून्यवाद ही बन जायेगा । हमारा अभिप्राय तो इतना ही है कि तत्त्व की सत्ता चाहे अपने आप में निरपेक्ष हो, लेकिन उसके सन्दर्भ में होनेवाला ज्ञान सदैव सापेक्ष होता है । क्योंकि ज्ञान के साधन इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि निरपेक्ष नहीं हैं। इतना ही नहीं, अपरोक्षानुभूति में भी जो वस्तुविषयक ज्ञान होता है, वह भी दृष्टिकोण से निरपेक्ष नहीं हो सकता । ज्ञान और दृष्टिकोण ये दोनों साथ-साथ चलते हैं, १. नयचक्र, उद्धृत-नयवाद, पृ० ३६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy