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भारतीय आचारदर्शन में ज्ञान को विधाएँ
और स्पर्श होते हैं ?" महावीर कहते हैं, " हे गौतम! मैं इस प्रश्न का उत्तर दो नयों से देता हूँ । व्यवहारनय ( लोकदृष्टि ) की अपेक्षा से तो वह मधुर कहा जाता है, लेकिन निश्चयनय ( तत्त्वदृष्टि ) की अपेक्षा से उसमें पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श होते हैं ।" १ इस प्रकार अनेक विषयों को लेकर उनका निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि से विश्लेषण किया गया है । वस्तुतः निश्चय एवं व्यवहार दृष्टियों का विश्लेषण यही बताता है कि सत् न उतना ही है जितना वह हमें इन्द्रियों के माध्यम से प्रतीत होता है और न उतना ही है जितना कि बुद्धि उसके स्वरूप का निश्चय कर पाती है । सत् के समग्र स्वरूप को समझने के लिए ऐन्द्रिक ज्ञान और बौद्धिक ज्ञान, दोनों ही आवश्यक हैं ।
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एक अन्य अपेक्षा से, जैन दर्शन में ज्ञान की तीन विधाएँ मानी गयी हैं । जैन दर्शन में ज्ञान पाँच प्रकार का है - - ( १ ) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मन:पर्ययज्ञान और (५) केवलज्ञान । २ इनमें ' मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्षज्ञान हैं, और शेष तीन अपरोक्षज्ञान हैं । 3 अपरोक्षज्ञान में आत्मा को सत् का बिना किसी साधन के सीधा बोध होता है । इसे अपरोक्षानुभूति भी कहा जा सकता है। शेष दो मतिज्ञान और श्रुतज्ञान क्रमशः अनुभूत्यात्मक ज्ञान और बौद्धिक ज्ञान से सम्बन्धित हैं । " मतिज्ञान में ज्ञान के साधन मन और इन्द्रियाँ हैं १४ इस आधार पर मतिज्ञान को अनुभूत्यात्मक ज्ञान और श्रुतज्ञान को तार्किक या बौद्धिक ज्ञान कहा जा सकता है । तत्त्वार्थसूत्र में ' वितर्क ( बुद्धि ) को श्रुत कहा है आगमिक ज्ञान भी माना गया है ।' ६ लेकिन आगम भी श्रुतज्ञान बौद्धिक ज्ञान ही है । इस प्रकार जैन विचारणा रूप में तीन विधाएं उपस्थित हो जाती हैं - (१) अनुभूति या ऐन्द्रिक ज्ञान, (२) बौद्धिक या आगमिक ज्ञान और ( ३ ) अपरोक्षानुभूति या आत्मिक ज्ञान । अपरोक्षानुभूति या आत्मिक ज्ञान को अन्तर्दृष्टि या प्रज्ञा भी कहा जा सकता है । १३. बौद्ध दर्शन में ज्ञान की विधाएँ
।"
बौद्ध दर्शन में सत् के स्वरूप की व्याख्या के लिए प्रमुख रूप दो दृष्टिकोण प्रस्तुत किये गये हैं । जैनेतर दर्शनों में, सर्वप्रथम पालित्रिपिटक में हम दो दृष्टियों का वर्णन पाते हैं जिन्हें नीतार्थ और नेय्यार्थ कहा गया है । अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध कहते हैं, " भिक्षुओ ! ये दो तथागत पर मिथ्यारोप करते हैं । जो नेय्यार्थसूत्र ( व्यवहार - भाषा ) को नीतार्थसूत्र ( परमार्थ - भाषा ) प्रकट करता है और नीतार्थसूत्र ( परमार्थ - भाषा ) को नेय्यार्थसूत्र ( व्यवहार - भाषा ) करके प्रकट करता है ।'
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१. भगवतीसूत्र, १८/६/४४-४६.
२. तत्त्वार्थ सूत्र, ११९.
३. वही, १1११ - १२.
४. वही, ११४.
५. वही, ९।४५.
६. वही, १ २०.
७. अंगुत्तरनिकाय, पृ० २.
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वैसे 'श्रुतज्ञान का एक अर्थ बौद्धिक ज्ञान ही है, अतः में ज्ञानप्राप्ति के साधनों के
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