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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
ऐसी स्थिति में अपरिहार्य रूप से व्यक्ति अच्छाई और बुराई के नैतिक अन्तर से ऊपर उठ जाता है । यद्यपि इस सबका अर्थ यह नहीं है कि भारतीय परम्परा में शुभ या अच्छाई अस्वीकृत रही है, वरन् केवल यही बताया गया है कि पूर्णता की उपलब्धि के लिए, संघर्षमय जीवन से ऊपर उठने के लिए, इनसे ऊपर उठना आवश्यक है । नैतिक पूर्णता को प्राप्त करने के लिए नैतिकता के क्षेत्र का अतिक्रमण आवश्यक है। भारतीय आचारदर्शन इसी महत्त्वपूर्ण तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए यह मानते हैं कि नैतिक जीवन का लक्ष्य नैतिकता के क्षेत्र से परे है। अतिनैतिक होकर ही नैतिक पूर्णता को प्राप्त किया जा सकता है।
इसी प्रकार श्वेट्जर आदि पाश्चात्य विचारकों के द्वारा भारतीय नैतिक चिन्तन पर सहृदयता एवं सहानुभूति के अभाव के जो आक्षेप लगाये गये, वे या तो भारतीय नैतिकता के स्वरूप को बिना सम्यक् प्रकार समझे लगाये गये हैं या उनमें केवल आलोचनात्मक दृष्टि ही प्रमुख रही है। जिस संस्कृति ने 'मेरे' और 'पराये' के विचार को ही हृदय की संकुचितता का द्योतक माना हो, जिसने 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की उदार अवधारणा प्रस्तुत की हो, जिसने प्रतिपल--
सर्वेऽत्र सुखिनः सन्तु, सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःखमाप्नुयात् ॥ का गान गाया हो, जिसमें बोधिसत्व, तीर्थंकर और प्रभु के अवतरण का आदर्श लोकमंगल की उदात्त भावना से परिपूर्ण हो, उसके हृदय को कैसे रिक्त कहा जा सकता है।
प्रस्तुत अध्ययन में हमने इस बात को अधिक स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि भारतीय नैतिक चिन्तन और विशेष रूप से जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन किसी एकांगी दृष्टिकोण को स्वीकार करके नहीं चलते हैं। भारतीय चिन्तन और विशेषकर जैन विचारणा एक सर्वांगीण एवं समन्वयवादी दृष्टिकोण को लेकर आगे आती है । अतः जहाँ उनमें विभिन्न पाश्चात्य विचारधाराओं के तत्त्वों की उपस्थिति पायी जाती है, वहीं वे अपनी व्यापक दृष्टि के आधार पर उनमें समन्वय का सूत्र भी प्रस्तुत कर देते हैं । भारतीय आचारदर्शनों का दृष्टिकोण व्यापक एवं समन्वयवादी है। यही कारण है कि उन्हें पाश्चात्य नैतिक चिन्तन के विभिन्न चौखटों में कहीं भी फिट नहीं किया जा सकता, वरन् इसके विपरीत उनकी व्यापक दृष्टि के आधार पर विभिन्न पाश्चात्य विचारधाराओं को एक समग्र एवं समन्वित रूप में देखा जा सकता है।
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