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भारतीय आचारदर्शन का स्वरूप
अभिव्यक्ति करना होता है । हम ससीम के बन्धन में पड़े हुए हैं तथापि हम असीम की आकांक्षा करते हैं। जन्म और पुनर्जन्म की लम्बी शृखला इस अर्थ में तो भारी बन्धन है, परन्तु दूसरे अर्थ में वह आत्मज्ञान का साधन भी है। भौतिक प्राणी होते हुए भी आध्यात्मिक प्राणी के रूप में अपने को विकसित कर लेना मानवीय विकास की उच्चतम उपलब्धि है । नश्वर शरीर से सम्बद्ध होते हुए भी आत्मा की अमरता में निवास करना इसी को कहते हैं । १ वस्तुतः एक उच्च आत्मा के निर्माण के लिए, जीवन की अपूर्णताओं और क्षुद्रताओं से ऊपर उठने के लिए, यदि निम्न आत्मा या वासनामय जीवन का त्याग आवश्यक हो तो वह न तो जीवन से पलायन है और न इनकार ही। न केवल वैदिक परम्परा में, वरन् जैन और बौद्ध परम्पराओं में भी यह दृष्टिकोण स्वीकृत है।
डा० श्वेटजर का सातवाँ आक्षेप यह है कि भारतीय परम्परा में आदर्श व्यक्ति को अच्छाई और बुराई के नैतिक अन्तर से परे माना गया है। यद्यपि यह सत्य है कि जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराओं में परमसाध्य शुभ और अशुभ या अच्छाई और बुराई के स्तरों से ऊपर उठना माना गया है, लेकिन नैतिक पूर्णता के लिए यह दृष्टिकोण आवश्यक है। वस्तुतः शुभ और अशुभ सापेक्षिक सत्ताएं हैं। अशुभ के अस्तित्व में ही शुभ का अर्थ रहा हुआ है। शुभ की सत्ता तभी तक है जबतक कि अशुभ है । लेकिन जबतक अशुभ की उपस्थिति है नैतिक पूर्णता सम्भव नहीं । अतः नैतिक पूर्णता के लिए शुभ और अशुभ दोनों से ही ऊपर उठना आवश्यक है । नैतिक जीवन शुभ और अशुभ के संघर्ष की अवस्था है। लेकिन इस संघर्ष से ऊपर उठने के लिए शुभ और अशुभ की सीमाओं का अतिक्रमण भी आवश्यक है। पाश्चात्य विचारक ड्रडले ने इसे विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया है कि अपने आदर्श को पाने के लिए मनुष्य को नैतिकता से परे धर्म की ओर जाना होता है जहाँ उसका आदर्श यथार्थ के रूप में परिणत हो जाता है। उनकी दृष्टि में नैतिक होने के लिए अतिनैतिक होना भी आवश्यक है। वे लिखते हैं कि नैतिकता का विचार हमें उससे परे ले जाता है ।२ जैन परम्परा के अनुसार अच्छाई या बुराई अथवा पुण्य या पाप दोनों ही बन्धन हैं और मोक्ष के साध्य की उपलब्धि के लिए इनसे ऊपर उठना आवश्यक है । बौद्ध परम्परा में भी आदर्श व्यक्तित्व को पुण्य और पाप से ऊपर माना गया है । इस सम्बन्ध में विशेष विचार अगले अध्यायों में किया गया है, अतः यहाँ विस्तार में जाना आवश्यक नहीं । वस्तुतः पुण्य और पाप, शुभ और अशुभ या अच्छाई और बुराई हमारे अहंकार, कर्तृत्वभाव या आसक्ति (राग) का परिणाम होते हैं । जहाँ राग होता है वहाँ द्वेष की उपस्थिति भी रहती है, और यही कारण है कि पुण्य के साथ-साथ पाप का या शुभ के साथ-साथ अशुभ का अस्तित्व भी बना रहता है । द्वेष या अशुभ के पूर्ण प्रहाण पर राग का अस्तित्व भी नहीं रहता और
१. प्राच्य धर्म और पाश्चात्य विचार, पृ० ११५-११७.
२. एथिकल स्टडीज, पृ० २५०, ३१४. Jain Education International
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