________________
२४
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन डा० श्वेट्जर का पाँचवाँ आक्षेप है कि भारतीय परम्परा में मोक्ष का साधन ज्ञान या आत्म-साक्षात्कार है। यह बात नैतिक विकास से भिन्न है, इसलिए हिन्दू धर्म आचार या नीति विषयक नहीं है। उनके इस आक्षेप में उनकी एकांगी दृष्टि का ही परिचय मिलता है। प्रथम तो सभी भारतीय आचारदर्शनों ने ज्ञान को ही एकमात्र मुक्ति का साधन माना हो, यह कहना यथार्थ नहीं है । भारतीय धर्मों में ज्ञान के साथ-साथ ही कर्म, ध्यान और भक्ति के तत्त्व भी उपस्थित हैं। जिन विचारकों ने ज्ञान को ही मोक्ष का साधन माना है उन्होंने भी सदाचार या नैतिकता को अस्वीकार नहीं किया, वरन् सदाचार या नैतिक जीवन को ज्ञानप्राप्ति के लिए अनिवार्य साधन बताया है । मात्र यही नहीं, जैन और बौद्ध परम्पराओं ने अपने साधना-पथ में ज्ञान को जो स्थान दिया है वही स्थान शील या आचरण को भी दिया है। उनकी साधना-पद्धति में ज्ञान के साथ-साथ आचरण का तत्त्व भी समाहित है, अत: उन्हें अनिवार्य रूप से आचारमार्गी दर्शन स्वीकार करना पड़ेगा। गीता के निष्काम कर्मयोग सिद्धान्त में भी ज्ञान के साथ-साथ आचरण का महत्त्व स्वीकार किया गया है। अतः यह मानना पड़ेगा कि भारतीय परम्परा में आचारशास्त्र या नीति का महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
भारतीय परम्परा पर छठा आक्षेप पलायनवादिता का लगाया गया है, लेकिन यदि हम विचारपूर्वक देखें तो भारतीय दर्शन पलायनवादी सिद्ध नहीं होता। डा० श्वेट्जर का यह कहना नितान्त भ्रामक है कि भारतीय परम्परा में मानव प्रयासों का लक्ष्य पलायन है, समन्वय या समझौता नहीं। भारतीय परम्परा में समन्वय और सहयोग के तत्त्व प्रारम्भ से ही रहे हैं। क्या वेदों का 'संगच्छध्वं संवदध्वं' का गान, औपनिषदिक ऋषियों की 'सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्य करवावहै' की मंगलकामना तथा बुद्ध और महावीर की परम्परा का संघीय जीवन सामाजिक क्षेत्र से पलायनवादिता है ? भारतीय परम्परा का संन्यासधर्म भी जीवनक्षेत्र से पलायन नहीं है, वरन् स्वार्थों से ऊपर उठने का प्रयास है। अतः भारतीय चिन्तन पर पलायनवादिता का यह आक्षेप उचित नहीं है। संन्यास जीवन और जगत् से पलायन नहीं, वरन् एक उच्च व्यक्तित्व और उच्च जगत् का निर्माण है। वह वासनाओं और क्षुद्रताओं से ऊपर उठकर निष्काम एवं विशुद्ध प्रेममय जीवन जीने की एक कला है। वासनाओं एवं क्षुद्रताओं से ऊपर उठने के प्रयास को पलायन नहीं कहा जा सकता। भारतीय परम्परा यह स्वीकार करती है कि हमें जीवन की वर्तमान अपूर्णताओं और क्षुद्रताओं से ऊपर उठना है, लेकिन इसका अर्थ जीवन से इनकार नहीं है, वरन् जीवन और शरीर तो उसके साधन माने गये हैं। डा० राधाकृष्णन् लिखते हैं कि हिन्दू दृष्टिकोण की विशेष बात यह है कि वह मन, जीवन और शरीर के विकास को जीवन का प्राथमिक उद्देश्य मानता है । शारीरिक स्वास्थ्य और स्फूर्ति सजीव शक्ति और मानसिक सन्तुष्टि के लिए अनिवार्य हैं।
किन्तु उससे भी अधिक उसकी आवश्यकता इसलिए है कि शरीर उन मानुषिक . कार्यों को करने की सामर्थ्य रखता है जिनका उद्देश्य मनुष्य में ईश्वर की शोध और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org