SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय आचारदर्शन का स्वरूप २३ विज्ञान है । यदि हम 'जो हैं' उसी से सन्तुष्ट हैं तो हमें 'जो होना चाहिए' इसका कोई अर्थ हमारे लिए नहीं रह जायेगा। दृश्य जगत् से परे भी कोई जीवन और जगत् है यह आस्था ही हमें नैतिक पूर्णता की दिशा में ले जा सकती है। भारतीय आचारदर्शनों ने पारलौकिकता एवं आध्यात्मिकता को नैतिक जीवन के लिए जो स्वीकृति दी है, उसके पीछे उनकी यही गहन दृष्टि रही है कि हमारा परमश्रेय केवल इसी जगत् और जीवन तक सीमित नहीं है। हमें वर्तमान जीवन की अपूर्णताओं और सीमितताओं से ऊपर उठ कर किसी साध्य को प्राप्त करना है। डा० श्वेट्जर का तीसरा आक्षेप मायावाद से सम्बन्धित है। उन्होंने मायावाद के सिद्धान्त को जीवन और जगत् का निषेधक मान लिया है। उनकी दृष्टि में मायावाद का सिद्धान्त जीवन और जगत् को भ्रम या मरीचिका मानता है। वे लिखते हैं कि एक ऐसे संसार में जिसका कोई अर्थ नहीं है, मनुष्य नैतिक कार्यों में नहीं जुट सकता। माया के सिद्धान्त में विश्वास करनेवाले व्यक्ति के लिए आचारनीति का केवल सापेक्षिक महत्त्व ही हो सकता है।' वस्तुतः डा० श्वेटजर की यह भ्रान्त धारणा कि मायावाद जीवन और जगत् का निषेधक है, माया के सही अर्थ को नहीं समझ पाने के कारण उत्पन्न हुई है। वे प्रातिभासिक सत्य और व्यावहारिक सत्य में अन्तर को नहीं समझ पाये हैं । डा० राधाकृष्णन ने अपने ग्रन्थ 'हिन्दुओं की जीवनदृष्टि' तथा 'प्राच्य धर्म और पाश्चात्य विचार' में इसे विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया है कि मायावाद का सिद्धान्त जीवन और जगत् का निषेधक नहीं है। दूसरे, शंकर का मायावाद समग्र भारतीय दर्शन का प्रतिनिधि नहीं है। विस्तारभय से यहाँ उस समग्र चर्चा में जाना सम्भव नहीं है। जहाँ तक जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का प्रश्न है, वे मायावाद के सिद्धान्त के समर्थक नहीं माने जा सकते । जैन दर्शन तो एक यथार्थवादी दर्शन है और इसलिए उसमें मायावाद के सिद्धान्त का कोई स्थान ही नहीं है । बौद्ध परम्परा में भी शून्यवाद और विज्ञानवाद के अतिरिक्त सभी ने जीवन और जगत् की वस्तुगत वास्तविक सत्ता को स्वीकार किया है । गीता की तत्त्वमीमांसा को भी मायावाद का समर्थक सिद्ध नहीं किया जा सकता । अतः यह आक्षेप उनपर लागू ही नहीं होता। डा० श्वेटजर का चौथा आक्षेप है कि हिन्दूधर्म के अनुसार यह जगत भगवान् की लीला है । वस्तुतः यह सही है कि जगत् को भगवान् की लीला मानने पर नियतिवाद का सिद्धान्त आ जाता है और जिसमें नैतिक उत्तरदायित्व की व्याख्या सम्भव नहीं होती है। किन्तु जैन और बौद्ध परम्पराएँ इस बात को स्पष्ट रूप से अस्वीकार करती हैं कि जगत् ईश्वर की लीला है। यद्यपि गीता की विचारणा में इस सिद्धान्त का कुछ समर्थन और तज्ज नित निय तिवाद के तत्त्व अवश्य उपस्थित हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जहाँ तक जैन और बौद्ध परम्पराओं का प्रश्न है, यह आक्षेप उनपर लागू नहीं होता। १. इण्डियन थाट ऐण्ड इट्स डेवलपमेण्ट, पृ० ५९-६०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy