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________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन दृष्टि में जो आचरण परलोक की अपेक्षा से किया जाता है, वह बन्धनकारी कारण माना गया है। जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों में स्वर्ग और नरक के जो पारलौकिक प्रत्यय उपस्थित किये गये हैं, उनका सम्बन्ध जनसाधारण से है । जो व्यक्ति बौद्धिक दृष्टि से परिपक्व नहीं हैं और जिनका जीवन भय और प्रलोभन के आधारों पर ही चल रहा है उन्हें अनैतिक जीवन से विरत करने और नैतिक जीवन के प्रति आकर्षित करने के लिए यद्यपि स्वर्ग का प्रलोभन और नरक का भय उपस्थित किया गया है, लेकिन यह भारतीय नैतिकता की अन्तिम दृष्टि नहीं है । भक्तों का श्रेणी - विभाजन करते हुए गीता यह स्पष्ट कर देती है कि जो साधक भय या प्रलोभन के निमित्त से भक्ति ( सदाचरण ) करता है वह निम्न कोटि का है। गीता में भक्तों की जो चार कोटियाँ कही गयी हैं उनमें आर्त्त और अर्थार्थी ( स्वार्थी ) भक्त, जो कि क्रमशः भय अथवा प्रलोभन के आधार पर नैतिक जीवन जीते हैं, निम्न कोटि के माने गये हैं ।' बुद्ध ने भी श्रामण्य का फल इसी जीवन में माना है । अतः भारतीय नैतिकता केवल परलोक के भय और प्रलोभनों पर खड़ी हुई नहीं है । परलोक के प्रलोभन एवं भय के आधार पर जिस नैतिकता का उपदेश दिया गया है उसका सम्बन्ध मात्र अपरिपक्व साधकों से है । २२ डा० श्वेट्जर का यह दृष्टिकोण भ्रान्तिपूर्ण है कि मानवतावादी नीति एवं पारलौकिकता परस्पर असंगत हैं । वस्तुतः इस दृष्टिकोण के पीछे भौतिकवादी धारणा ही अधिक प्रबल दिखाई देती है । मानवतावादी दृष्टिकोण ऐहिक जीवन तक ही अपना ध्यान सीमित रखना चाहता है । उसके अनुसार, प्रकृति के सिद्धान्तों के अनुरूप ही अपने आचरण को ढाल लेना ही मनुष्य का नैतिक कर्तव्य है । मानवतावादी आचारदर्शन मनुष्य को एक मनोभौतिक एवं सामाजिक प्राणी के रूप में देखता है । उसकी दृष्टि में नीतिशास्त्र या तो समाजशास्त्र की एक शाखा है या मनोविज्ञान का एक विभाग । लेकिन यदि मनुष्य प्राकृतिक नियमों के अधीन है तो नैतिक सद्गुणों को और आत्मत्याग एवं आत्मबलिदान के प्रत्ययों को कोई प्रोत्साहन नहीं मिल सकता । डा० राधाकृष्णन् के शब्दों में, भौतिक आधार अनिवार्य होते हुए भी वह वास्तविक जीवनयापन के लिए बहुत ही संकुचित प्रतीत होता है । मनुष्य क्या केवल शरीर है जिसे खिलाया पिलाया, ओढ़ाया-पहनाया और आवासित किया जा सकता है, या वह आत्मा भी है जिसकी कुछ उच्च आकांक्षाएँ हैं ? जिन लोगों को भौतिक सभ्यता की नियामतें, सारी सुख-सुविधाएँ प्राप्त हैं उन लोगों को भी जब हम हताश और कुण्ठित देखते हैं, तब यह समझ में आ जाता है कि मनुष्य केवल रोटी या भावनात्मक उत्तेजना पर ही जीवित नहीं रह सकता । यदि शुभेच्छा, विशुद्ध प्रेम और वैराग्य हमारे आदर्श हैं तो हमारी आचारनीति की जड़ पारलौकिकता की भावना में होनी चाहिए । वस्तुतः आचारदर्शन एक आदर्शात्मक ૨ १. गीता ७ १६ - १७; तुलनीय - चाणक्यनीति, १३/२. प्राच्य धर्म और पाश्चात्य विचार, पृ० ९७ - १००. २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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