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भारतीय आचारदर्शन का स्वरूप अभीप्सा जाग्रत होती है और उसी अभीप्सा से व्यक्ति पूर्णता की दिशा में प्रयत्न करता है। पूर्णता की अभीप्सा ही समग्र भारतीय नैतिक एवं आध्यात्मिक साधनाओं का सारतत्त्व है। पूर्णता का प्रत्यय जीवन का निषेधक नहीं, वरन् उसके विकास का ही परिचायक है।
डा० श्वेटजर का दूसरा आक्षेप है कि हिन्दू विचारणा अनिवार्यतः पारलौकिक है, और मानवतावादी आचार-नीति और पारलौकिकता ( ये दोनों परस्पर असंगत हैं ) भारतीय विचारणा के गहन अध्ययन पर आधारित प्रतीत नहीं होता है। यद्यपि भारतीय नैतिक चिन्तन में पारलौकिक जीवन के सन्दर्भ में नैतिकता का विचार किया गया है और नैतिक आचरण का सम्बन्ध भूत और भावी जीवन से जोड़ा गया है ( जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों में भी यही दृष्टिकोण अपनाया गया है ) फिर भी यह मानना भ्रान्तिपूर्ण होगा कि भारतीय नैतिक चिन्तन में वर्तमान जीवन की उपेक्षा की गयी है। भारतीय चिन्तकों की दृष्टि वर्तमान जीवन के प्रति भी हमेशा सजग रही है। जैन और बौद्ध दर्शनों के अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह के नैतिक सिद्धान्त पारलौकिक जीवन की अपेक्षा वर्तमान जीवन एवं समाज-व्यवस्था से अधिक सम्बन्धित हैं। गीता जब वर्णाश्रम धर्म और निष्काम कर्मयोग का उपदेश देती है तो उसकी दृष्टि वर्तमान व्यावहारिक जीवन पर भी केन्द्रित है, ऐसा मानना भी युक्तिसंगत है। जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन भी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि स्वर्ग के प्रलोभन और नरक के भय पर खड़ी हुई नैतिकता वास्तविक नैतिकता नहीं है, वरन् वह नैतिकता का आभास-मात्र है। जैन आगम दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि नैतिक आचरण न तो इस जीवन में सुख-साधनों की उपलब्धि के लिए करना चाहिए और न पारलौकिक जीवन के लिए। जैन आचारदर्शन में सम्यग्दृष्टी या ज्ञानी की पहचान ही यह मानी गयी है कि जो न भूत की चिन्ता करता है और न भविष्य की आकांक्षा, वही वास्तविक ज्ञानी है। गीता में इसी दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करते हुए कहा गया है कि पण्डितजन भूत और भविष्य की चिन्ता नहीं करते हुए जो भी कर्तव्य सामने उपस्थित होता है उसका पालन करते हैं । २ बुद्ध का कथन है कि बीते हुए का शोक नहीं करते, आनेवाले पर मन्सूबे नहीं बाँधते, जो उपस्थित है उसी से गुजारा करते हैं वे शान्त भिक्षु सदैव प्रसन्न रहते हैं। बुद्ध की दृष्टि में सच्चा साधक न लोक की आशा करता है और न परलोक की।४
वस्तुतः जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों ने नैतिकता अथवा धर्म को प्रलोभन एवं भय के आधार पर खड़ा करना कभी भी उचित नहीं समझा। उनकी
१. दशवकालिक, ९।४।७, ९।३।४. २. गीता, २।११. ३. संयुत्तनिकाय, १११११०. ४. वही, २।३।६.
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